SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और दर्शन ही केवल प्रतिपात नहीं है, किन्तु उनको किसी भी प्रकार का कष्ट देना भी प्रारणातिपात है । १७० 1 उक्त व्याख्यानों में दया और करुणा का पयोधि उछालें मार रहा है । स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक किसी भी प्राणी को मन, वचन और काया से कष्ट न पहुँचाना और उनके प्रति मैत्री भाव रखना हिंसा है। हिसा हमें " प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' का पाठ पढ़ाती है । अहिंसा का महत्व प्रतिपादित करते हुए भगवान् श्री महावीर ने हिसा को 'भगवती' कहा है ।" और प्राचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को 'परम ब्रह्म' कहा है। महाभारतकार व्यास ने अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम सत्य, परम संयम, परम दान, परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख कहा है।" (क) ४ पाणातिवाता [ तो ] अतिवातो हिंसरणं ततो एसा पंचमी अपादारणे भयहेतुलक्खणा वा भीतार्थानां भयहेतुरिति । - दशवं० श्रगस्त्य सिंह चूर्णि (ख) पाणाइवाओ नाम इं दिया आउप्पाणादिनो छव्विहो पाणा य जेसिं अत्थिते पागिणो भण्ांति, तेसिं पाणाणमइवाओ तेहि पाहि सह विसंजोगकरणत्ति वृत्तं भवइ । - दशवेकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० १४६ तेषामतिपातः प्राणातिपातः - जीवस्य ५. (ग) प्राणा - इन्द्रियादयः महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । एसा सा भगवती अहिंसा ६. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् । ७. अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ अहिंसा परमो धर्मंस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ Jain Education International - दशवैकालिक, हारिभद्रीयावृत्ति प० १४४ For Private & Personal Use Only --प्रश्नव्याकरण - बृहत् स्वयंभू स्त्रोत्र www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy