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________________ धर्म और दर्शन परित्याग तप माना है ।४५ इसके भी औपपातिक में नौ भेद बताये हैं।४६ (५) कायक्लेश-आसन, आतापना, विभूषा-वर्जन और परिकर्म के द्वारा शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। इसके आगमों में कहीं पर सात,४८ कहीं पर दस९ और कहीं पर बारह भेद निरूपित किये गये हैं। (६) प्रतिसंलीनता- मन और इन्द्रियों को अपने विषयों से हटाकर अन्तमुख करना, अनुदीर्ण क्रोधादि कषायों का निरोध करना तथा उदय में आये हुए को विफल करना, और स्त्रीपशु नपुंसक रहित एकान्त शान्त स्थान में निवास करना प्रतिसंलीनता तप है। यह (१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता (२) कषाय प्रति संलीनता, (३) योग ४५. रसपरित्यागोऽनेकविधः । तद्यथा-मांसमधुनवनीतादीनां मद्यरसविकृतीनां प्रत्याख्यानं विरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च । -तत्त्वार्थ० ६।१६ भाष्य से कि तं रस परिच्चाए ? अरोगविहे पणत्ते । तं जहा-निव्वीइए, पणीयरसपरिच्चाए (३) आयंबिलिए (४) आयामसित्थभोई (५) अरसाहारे, (६) विरसाहारे, (७) अन्ताहारे (८) पन्ताहारे, (१) लूहाहारे। .-औपपातिक, सम० ३० ४७. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ॥ -उत्तरा० ३०१७ ४८. ठाणाङ्ग ७।३।५५४ ४६. ठाणाङ्ग ॥१॥३६६ ५०. औपपातिक, सम० ३० (ख) भगवती २५७ में भी कायक्लेश के अनेक भेद बताये है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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