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________________ साधना का मूलाधार आत्म-भाव के आलोक से आलोकित करने वाली विवेकयुक्त दृष्टि ही True Faith सम्यग्दर्शन है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मविकास की दृष्टि से किया गया जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष प्रादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। श्रद्धा जीवन का सम्बल है । व्यावहारिक दृष्टि से 'जिन' की वाणी में, जिनके उपदेश में, जिसको दृढ़ निष्ठा है, वही सम्यग्दर्शी है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है ।" यदि मूल में भूल है, सम्यग्दर्शन का प्रभाव है, तो सभी क्रियाएँ संसार का क्षय न कर अभिवृद्धि ही करती हैं ।" सम्यग्दर्शी पाप का अनुबन्धन नहीं करता । " जो सम्यग्दर्शन से संपन्न है वह कर्म से बद्ध नहीं होता और जो सम्यग्दर्शनविहीन है वही संसार में परिभ्रमण करता है | १२ चारित्र ६. ७. ८. ६. १०. स्थानाङ्ग, C ( क ) तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ १२. (ख) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । ११. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । (ख) णिग्गंथे पावयणे अट्टे, अयं परमठुट्टे, सेसे अणट्ठे । दंसणमूलो धम्मो । नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं । Jain Education International १३७ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभि र्न निबद्ध यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ , - उत्तराध्ययन २८ । १५ -- तत्त्वार्थ सूत्र १।२ - श्राचारांग, ५।१६३ उद्द े० ५ For Private & Personal Use Only - भगवती २५ - उत्तराध्ययन श्र० २८ गा० २६ -दर्शन पाहुड - श्राचारांग ११३०२ - मनुसंहिता, ६।७४ www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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