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________________ धर्म और दर्शन अनेकान्त के शीतल स्वच्छ सरोवर में अवगाहन करना ही उचित है। स्याद्वाद का उदार दृष्टिकोण अपनाने से समस्त दर्शनों का सहज ही समन्वय साधा जा सकता है । अन्य दर्शनों पर अनेकान्त की छाप : अनेकान्तवाद सत्य का पर्यायवाची दर्शन है । यद्यपि कतिपय भारतीय दार्शनिकों ने अपनी एकान्त विचारधारा का समर्थन करते हुए अनेकान्तवाद का विरोध भी किया है, मगर यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि सभी भारतीय दर्शनों पर उसकी छाप न्यूनाधिक रूप में अंकित हुई है । असल में यह इतना तर्कयुक्त और बुद्धिसंगत सिद्धान्त है कि इसकी सर्वथा उपेक्षा की ही नहीं जा सकती। ईशावास्योपनिषद् में प्रात्मा के सम्बन्ध में कहा गया है-'तदेजति, तन्नेजति, तद् दूरे, तदन्तिके, तदन्तरस्यसर्वस्य, तद् सर्वस्यास्य बाह्यतः ।' अर्थात् प्रात्मा चलती भी है और नहीं भी चलती है, दूर भी है, समीप भी है, वह सब के अन्तर्गत भी है, बाहर भी है। ____ क्या ये उद्गार स्याद्वाद से प्रभावित नहीं हैं ? भले ही शंकराचार्य और रामानुजाचार्य एक वस्तु में अनेक धर्मों का अस्तित्व असम्भव कहकर स्याद्वाद का विरोध करते हैं, मगर जब वे अपने मन्तव्य का निरूपण करने चलते हैं तब स्याद्वाद के असर से वे भी नहीं बच पाते । उन्हें भी अनन्यगत्या स्याद्वाद का आधार लेना पड़ता है। ब्रह्म के पर और साथ ही अपर रूप की कल्पना में अनेकान्त का प्रभाव स्पष्ट है। उन्होंने सत्य की परमार्थसत्य, व्यवहारसत्य और प्रतिभाससत्य के रूप में जो व्याख्या प्रस्तुत की है, उससे अनेकान्त की पुष्टि ही होती है। वे कहते हैं-'दृष्टं किमपि लोकेऽस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।' अर्थात् इस लोक में दिखाई देने वाली कोई भी वस्तु न निर्दोष है और न निर्गुण है । १३. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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