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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण है। किन्तु अनुकूल निमित्त कारण न हो तो बहुत-से कर्म-प्रदेशों से ही उदय में आकर-फल दिये बिना ही पृथक् हो जाते हैं । जब तक फल देने का समय नहीं पाता तब तक बद्ध कर्मों के फल की अनुभूति नहीं होती । कर्मों के उदय में आने पर ही उनके फल का अनुभव होता है । बन्ध और उदय के बोच का काल अबाधा काल कहलाता है । बंधे हुए कर्म यदि शुभ होते हैं तो उन कर्मों का विपाक सुखमय होता है । बंधे हुए कर्म यदि अशुभ होते हैं तो उदय में आने पर उन कर्मो का विपाक दुःखमय होता है ।। उदय में आने पर कर्म अपनी मूलप्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म अपने अनुभाव-फल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का आच्छादन करता है, दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आवत करता है । इसी प्रकार अन्य कर्म भी अपनी प्रकृति के अनुसार तीब या मन्द फल प्रदान करते हैं। उनकी मूल प्रकृति में उलट फेर नहीं होता। पर उत्तर-प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता। एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरण कर्म श्रु तज्ञानावरण कर्म के रूप में परिणत हो सकता है। फिर उसका फल भी श्र तज्ञानावरण के रूप में ही होगा। किन्तु उत्तर प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करतीं, जैसे दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय के रूप में और चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के रूप में संक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार सम्यक्त्व वेदनीय और मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी संक्रमण नहीं होता । आयुष्य की उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर सक्रमण नहीं होता। जैसे नारक अायुष्य तिर्यंच आयुष्य के रूप में या अन्य प्रायुष्य के रूप में नहीं बदल सकता। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।१८७ १८७. उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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