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________________ २०६ | सद्धा परम दुल्लहा सभी जीवों को आयुष्य प्रिय है। सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख सबको प्रतिकूल-अप्रिय लगता है । अनुकम्पा में प्राणि मात्र के साथ आत्मीयता, एकता या सहानुभूति होती है। वैसे दया, करुणा और अनुकम्पा में थोड़ा-सा अन्तर है। दया में दूसरों के साथ सहानुभूति होती है, साथ ही दया में प्राय: अहंकत्तत्व का भाव आ जाता है । करुणा में दूसरों को दुःखी देखकर आघात पहुँचता है। परन्तु अनुकम्पा में आत्मज्ञानपूर्वक आत्मीयता होती है। इसमें सर्वप्रथम मनुष्य अपनी आत्मा को भलीभाँति जान लेता है, आत्मा का हित या आत्मसुख किस में है ? इसे समझ लेता है। फिर यह अनुभव करता है कि जैसा अपना आत्मा है, वैसा ही दूसरे प्राणो का है। इसलिए अनुकम्पाशील व्यक्ति का अन्तःकरण दूसरों के प्रति आत्मीयता के कारण एकरस और समभावी बन जाता है। कहते हैं, एक व्यक्ति ने रामकृष्ण परमहंस के मना करने पर भी बैल की पीठ पर बैंत से मारा, उसके निशान रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर पड़ गए। मह था अनुकम्पा का ज्वलन्त उदाहरण ! रघुवंश में वर्णन आता है कि पार्वती को एक बिल्ली के बच्चे के प्रति इतनी आत्मीयता थी कि उसके मुंह पर किसी ने नोंच लिया था, उसके निशान पार्वती के मूह पर हो गए थे। इस प्रकार अनुकम्पाशील व्यक्ति का हृदय माता का-सा होता है। इसका कारण यह है कि दूसरों के सुख-दुःख का संवेदन अनुकम्पापरायण स्वयं अनुभव करता है । दूसरे का दुःख वह अपना ही दुःख समझता है । इसलिए वह ऐसा ही महसूस करता है कि मैं दूसरे का नहीं, अपना ही दुःख दूर कर रहा हूँ। वह अपनी शक्ति भर दूसरों के दुःख का निवारणोपाय करता है। अपने पैर में कांटा चुभने पर व्यक्ति जैसे हाथ से खींच कर निकाल लेता है, वैसे ही दूसरे के दुःख-अहित अपने ही प्रतीत हुए और रहा न गया, इसलिए दूर किये । इस प्रकार सहज स्थिति बन गई । यही कारण है कि इसमें निःस्वार्थ भाव से दूसरे का दुःख दूर करने का नम्र प्रयत्न होता है, किसी प्रकार की आशा या अपेक्षा इसमें नहीं रखी जाती और न ही कर्तृत्व का अभिमान इसमें होता है, न ही फलाकांक्षा का भाव। __ अनुकम्पा के विषय में किसी प्रकार की उलझन न रहे, इस दृष्टि से आचार्यों ने इसके दो भेद बताए हैं---द्रव्य-अनुकम्पा और भाव-अनुकम्पा । जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ और सुख-सुविधा की सामग्री जिन्हें प्राप्त है, परन्तु जो सद्धर्माचरण से रहित हैं, यथार्थ जीवन-दृष्टि से वंचित हैं, उनके प्रति करुणा से अन्तर् द्रवित हो जाना तथा उन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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