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________________ १६८ | सद्धा परम दुल्लहा हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ा। वे पुनः वैराग्यरस से युक्त होकर संयम में स्थिर हुए। ___ कहने का अर्थ यह है कि भावदेव का नैराग्य पहले मोहभित था। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को धन, परिजन या अभीष्ट वस्तु के नष्ट हो जाने, उससे वियोग हो जाने या चोरी हो जाने आदि कारणों से विरक्ति तो हो जाती है, पर वह नैराग्य है मोहभित ही । वह आगे चलकर ज्ञानगभित हो सकता है। दूसरा है-दुःखगभित वैराग्य । किसी आकस्मिक संकट या विपत्ति के आ पड़ने से, दुःसाध्य रोग हो जाने या किसी सम्बन्धी द्वारा कष्ट देने से, मारणान्तिक भय आदि दुःखों के कारण व्यक्ति को जो वैराग्य उत्पन्न होता है उसे दुःखगभित वैराग्य कहते हैं। दुःखभित वैराग्य भी कभी-कभी आगे चल कर पक्का हो जाता है। दोनों में से किसी प्रकार के वैराग्य का आश्रय लेने वाले व्यक्ति का प्रयत्न तो सुखी होने का रहता है । भत हरि को अपनी रानी पिंगला की कामपरायणता जानकर अपार दुःख हुआ। इसी दुःख से प्रेरित होकर राजा भर्तृहरि ने राज-पाट आदि सब छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। उस समय भर्तृहरि ने जो वैराग्य अपनाया था, वह दुःखगर्भित था। परन्तु आगे चलकर वह ज्ञानभित हो गया, जब भर्तहरि ने पिंगला को मैया कहकर उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की और उससे क्षमा मांग कर आध्यात्मिक विकास का उपदेश दिया। वस्तुतः तीसरा ज्ञानभित वैराग्य ही स्थायी, पक्का और यथार्थ वैराग्य है । जिसे अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्म या आत्मगुणों में-आत्मभाव में रमणरूप आत्मधर्म में सच्चे आत्म-सुख की प्रतीति और अनुभूति हो जाती है, पर-भावों या विषयसुखों या काम-भोगों में जरा भी आनन्द नहीं आता, महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि के पालन में, तप संयम और त्याग में सच्चा आनन्द आता है, जिसे संसार के सभी वैभव, रागरंग, विषय फीके लगते हैं, उसी की सम्यक्त्वपूर्वक विरक्ति को ज्ञानभित वैराग्य कहते हैं। ज्ञानभित वैराग्यसम्पन्न व्यक्ति के समक्ष सांसारिक भोगों के, विषय सुखों के कितने ही प्रलोभन आएँ वह वैराग्य से एक इंच भी विचलित नहीं होता। वह प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, सिद्धि, लब्धि, ऋद्धि या चमत्कारों से जरा भी प्रभावित नहीं होता। न ही वह इन्हें पाने की मन में इच्छा करता है। परीषहों और उपसर्गों के आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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