SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १६३ तथा सांसारिक प्रतिष्ठा, आदि के प्रति स्वेच्छा से स्वत प्रेरित एवं मोक्ष हेतु होती है, वही निर्वेद की कोटि में आती है। ऐसा निर्वेद पक्का और स्थायी होता है। सम्यग्दष्टि जीव में ऐसा निर्वेद आ जाता है तो उसके समक्ष चाहे जितने प्रलोभन एवं आकर्षण आएँ, स्वर्ग के देव भी आकर उसे डिगाने लगें, तो भी वह निर्वेद से चलायमान नहीं होता। सच है, जिस व्यक्ति के हृदय में मोक्ष-प्राप्ति की रुचि या अभिलाषा (संवेग) दढ़ होगी, उसके मन में स्वरूपानुभूति को नष्ट करने वाले किसी भी सांसारिक पदार्थ में या संसार के जन्म-मरण के बन्धन में डालने वाले किसी भी पदार्थ में आसक्ति, अनुरक्ति, आकर्षण या कामना नहीं रहती। उसके जीवन में निवंद गुण स्थिर हो जाता है। मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी या अविवेकी बहिरात्मा जहाँ सांसारिक पदार्थों, भोग-विलासों, निन्द्यशरीर या शरीर से सम्बद्ध धन, परिजन या मकान आदि में झट आसक्त या अनुरक्त हो जाता है, जिस किसी इष्ट-मनोज्ञ पदार्थ को देखता है, उसे रागवंश ग्रहण करने की ललक मन में पैदा हो जाती है, वह कामभोगों में अपने आपे को भूल जाता है वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव को विशुद्ध आत्मस्वरूप का परिबोध हो जाता है, तब वह सदा के लिए उन सब परभावों से विरक्त, उदासीन एवं अनासक्त हो जाता है । आत्मा की इस विशुद्ध स्थिति को ही निर्वेद कहा गया है । एक व्यक्ति स्वेच्छा से अपने अधीन कामभोगों का तथा कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर ललनाओं कोमल महीन वस्त्रों, गन्ध, माल्य, अलंकार आदि का त्याग कर देता है, फिर वह उनको ग्रहण करने की प्रार्थना किये जाने पर भी उन्हें ग्रहण करना तो दूर रहा उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता, वह उनकी ओर से पीठ फेर लेता है; ऐसे निर्वेद-सम्पन्न व्यक्ति को ही दशकालिक में सच्चा त्यागी कहा गया है। परन्तु जो व्यक्ति किसी कारणवश क्षणिक आवेश या क्षणिक वैराग्यवश इन मनोज्ञ कामभोगों या प्रिय पदार्थों को पाने की लालसा करता रहता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए उधेड़बुन करता रहता है, उसका निर्वेद कच्चा है, वह सच्चा त्यागी नहीं ढोंगी है, मायाचारी है। १. जे य कंते पिए भोए लद्ध विप्पिट्ठी कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥ वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुजंति न से चाइत्ति वुच्चई ॥ -दशव० अ. २, गा. ३, २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy