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________________ १८२ | सद्धा परम दुल्लहा इस शरीर और शरीर से सम्बन्धित जड़-चेतन पदार्थों के प्रति ममत्व और अहंत्व के कारण दुःख पाता है, नाना प्रकार के कर्मबन्धन भी करता है। अतः जो कुछ हुआ सो हुआ, अब मुझे इस मानव देह से विवेकपूर्वक पूर्णतः धर्माराधना करनी है, और अशरीरी बनने की--मोक्षमार्ग की साधना करनी है । इस प्रकार मनुष्य शरीर भावना के द्वारा मोक्षासुखेच्छारूप संवेग प्राप्त करता है। एकत्वभावना भी संवेग उत्पन्न होने में अन्तरंग निमित्त बनती है। मुमुक्ष जीव चिन्तन करता है-शद्ध चिदानन्दरूप आत्मा अकेला है, आत्मा से बाह्य समस्त भाव परभाव हैं। वे सब कर्मजन्य पदार्थ हैं। उनके साथ संयोग से नाना दुःख प्राप्त होते हैं। स्वयं एकाकी मेरे जीव ने ही कर्म किए हैं उनका फल मैं ही अकेला भोगता आया हूँ। उन कर्म-बन्धनों को तोड़ने हेतु पुरुषार्थ भी स्वयं मैंने किया है, करता हूँ और करना है। अतः समस्त कर्मों का क्षय करके समस्त आत्मगुणों से प्रकाशमान होने के लिए मुझे स्वयं ही पुरुषार्थ करना चाहिए । इसी प्रकार अशरण भावना भी मुक्ति को इच्छा (संवेग) में आभ्यन्तर निमित्त है। इस जीव को जन्म, जरा, व्याधि, मरण एवं अन्य चिन्ताओं में कोई भी सहायक नहीं हो सकता । धन, औषधि, शरीर एवं परिवार आदि की शक्ति निश्चय ही जीव की शक्ति नहीं है। जब असातावेदनीय आदि पाप कर्मों का उदय होता है, तब पूण्यशाली हो या पूष्यवान, किसी की भी सहायता करने में कोई भी सहायक नहीं हो सकता। परिजन आदि सजीव और धन, औषधि आदि निर्जीव जिन पदार्थों पर उसे गौरव प्रतीत होता है, वे स्वयं असहाय हैं तो सहायक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार अपनी असहायअशरण दशा का भान होने पर जीव को आत्मा का शुद्धभाव-रूप धर्म, अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्म ही एकमात्र शरणभूत या सहायक होता है । यही भावना जीव को मोक्षाभिलाषारूप संवेग में अन्तरंग निमित्त बनती है। सम्यक्त्व प्राप्ति और उसकी स्थिरता के हेतु रूप षट्स्थानकों का चिन्तन भी संवेग का प्रबल निमित्त है। (१) देहादि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न आत्मा है, जैसे-मकान में निवास करने वाला उससे भिन्न होता है, वैसे ही देह में निवास करने वाला आत्मा देह से भिन्न है। आत्मा का लक्षण जड़शरीर में नहीं पाया जाता। किन्तु अमूर्त-अरूपी होने के कारण वह इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है । (२) आत्मा अतीत में था, वर्तमान में है तथा भविष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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