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________________ ८८ पंचामृत मिथ्या बात करते हो ? सन्तों के यहाँ पर रत्नों का लेना-देना ही क्या है ? तुमने दूसरे स्थान पर रत्न रखे होंगे और भूल से मेरा नाम बदनाम करने के लिए मेरा नाम ले रहे हो। यह उचित नहीं है । वह साधु ही कैसा जो दूसरों के धन को रखता हो ? तूने मेरे पास रत्न कब रखे थे? चला जा यहाँ से । यदि चारपाँच की तो डण्डे पड़ेंगे। श्रेष्ठी धनदत्त भयभीत होकर उल्टे पैरों वहाँ से लौट गया। किन्तु उसका चेहरा मुरझा गया ! स्वप्न में भी उसे यह कल्पना नहीं थी कि साधु इस प्रकार का व्यवहार करेगा। वह सोचने लगा कि ऐसा कौन-सा उपाय करूं जिससे ये रत्न साधु के पास से निकल सकें। लम्बे समय तक सोचने के पश्चात् उसे सूझा कि कामलता वेश्या चाहे तो मुझे रत्न दिलवा सकती है। क्योंकि वह बहुत ही बुद्धिमती है। यदि मैं उसे अर्थ दूं तो वह मेरा कार्य सम्पन्न कर सकती । - धनदत्त श्रेष्ठी कामलता वेश्या के पास पहुँचा और सारी रामकहानी उसे सुनाते हुए कहा-इस प्रकार साधु वेषधारी मणिप्रभ ने मुझे धोखा दिय है। तुम मुझे पाँचों रत्न दिला दो तो मैं तुम्हारा उपकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org
SR No.003186
Book TitlePanchamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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