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________________ परीक्षा साधक वह है, जो लाभ-अलाभ, सुख-दुख और अपेक्षा-उपेक्षा आदि सभी परिस्थितियों में तटस्थ रहता है एवं (सम-भाव) की साधना करता है। रामकृष्ण परमहंस का, स्वामी विवेकानन्द पर असीम स्नेह था। विवेकानन्द का पूर्वनाम नरेन्द्र था। एक बार रामकृष्ण परमहंस ने बालक नरेन्द्र से बोलना ही बन्द कर दिया। जब नरेन्द्र उनको नमस्कार करने के लिए आते तब वे अपना मुंह फिरा लेते थे। प्रतिदिन नरेन्द्र सहजभाव से आते, उन्हें नमस्कार करते और कुछ देर तक उनके पास में बैठकर चले जाते । यह क्रम कई सप्ताह तक चलता रहा। एक दिन रामकृष्ण ने नरेन्द्र से पूछा - "मैं तुमसे नहीं बोलता हूँ, तू आता है और नमस्कार करता है, तब मैं अपना मुंह फेर लेता हूँ तथापि तू प्रतिदिन मेरे पास क्यों आता है ?" नरेन्द्र ने प्रत्युत्तर दिया --- "गुरुदेव ! आपके प्रति मेरे मन में श्रद्धा है इसलिए चला आता हूँ। आप श्री बोलें या न. बोलें इससे मेरी श्रद्धा में कुछ भी अन्तर नहीं आ सकता। यह सुनते ही परमहंस का दिल नरेन्द्र के प्रति वात्सल्य से छल-छला उठा। उन्होंने नरेन्द्र को छाती से लगाते हुए कहा- अरे पगले ! मैं तेरी परीक्षा कर रहा था कि तू उपेक्षा-भाव को सहन कर सकता है या नहीं, तू परीक्षा में समुत्तीर्ण हुआ है । मेरी हत्तन्त्री के तार झनझना रहे हैं कि एक दिन तू विश्व का एक महान् व्यक्ति बनेगा। * बिन्दु में सिन्धु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003184
Book TitleBindu me Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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