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________________ सह सकता, वह केवल अंधकार का पुजारी बना रह सकता है। देखें यह संसार का सर्वश्रेष्ठ चित्र है। कोई भी शल्य चिकित्सक यह स्वरूप नहीं बता सकता... कोई भी कामशास्त्री यह नग्न सत्य कह नहीं सकता। यह तथ्य तो केवल सर्वत्यागी महात्मा ही समझा सकते हैं आप दृष्टि डालें चित्र पर कृपा कर देखें। चन्द्रसेना ने प्रयत्नपूर्वक आंखें खोली "उसकी आंखों से केवल अकुलाहट ही नहीं झांक रही थी, भय भी साथ-साथ झांक रहा था। चित्रकार ने दूर से ही भय की स्थिति को समझ लिया। वह बोला-'देवी ! जिस शरीर का मनुष्य क्षण-क्षण परिकर्म करता है, सजाता है, उस शरीर का, इस स्वरूप के अतिरिक्त, कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है। मोह से मूढ़ मनुष्यों को यह नग्न सत्य अप्रिय लगता है। जिन व्यक्तियों का अज्ञान मिट चुका है और जिनका ज्ञानचक्षु उद्घाटित हो गया है, उनको यह नग्न सत्य एक दिशाबोध देता है । मेरे कथन में ।' बीच में ही अत्यन्त दीन स्वर में चन्द्र सेना ने कहा-'चित्रकार ! मेरा ऐसा परिहास''मैंने आपका क्या बिगाड़ा था ? मेरे हृदय में आपके प्रति...' 'देवी ! मेरे प्रति आपके हृदय में सहज-सुलभ नारी का प्रेम जागृत हुआ था' 'मैं न अंधा हूं और न हृदयविहीन । किन्तु उस प्रेमभावना के कारण ही मैंने इस चित्रांकन में सफलता पायी है। मेरे मन में न उस दिन कोई अन्यथाभाव था और न आज है 'यह चित्र मैं आपको एक गरीब भाई के उपहारस्वरूप अर्पित कर रहा हूं। आप इस उपहार को उपहास मानकर इसकी उपेक्षा न करें । मैंने अभी-अभी आपसे कहा था कि यह महान् चित्र दिशाबोध का सूत्र है। जिस दिन आप इस काया की माया से ऊब जाएंगी उस दिन यह चित्र आपको आश्वस्त करेगा.'' कहकर चित्रकार ने अपना चित्र समेटना प्रारंभ किया। चन्द्रसेना धीरे-धीरे चित्रकार के निकट आयी। उसके नयन सजल थे । वह मंद-मधुर स्वर में बोली-'आर्य सुशर्मा ! इस चित्रांकन की पृष्ठभूमि में रही हुई भावना को मैं समझ रही हूं.''आप मुझे क्षमा करें - 'मैं आपकी इस भेंट को सहर्ष स्वीकार करती हूं और इसे जीवनभर संजोकर रखेंगी, यह विश्वास दिलाती हूं।' यह कहकर चन्द्र सेना आर्य सुशर्मा के चरणों में नत हो गई। तत्काल सुशर्मा ने चन्द्रसेना के मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा---'बहन ! मैं तुझे कभी नहीं भूलूंगा' 'मेरा अंतिम कथन यही है कि इस नश्वर काया को संसार के मोहरूपी अग्निकणों से कभी मत दागना।' चन्द्रसेना खड़ी हुई । उसने सुशर्मा के हाथ में पकड़े चित्र को ले लिया और मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा- 'मैं आपकी शिक्षा कभी विस्मृत नहीं करूंगी... महाबल मलयासुन्दरीः ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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