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________________ ५७. न्याय का गौरव बलसार को कारावास में आए पन्द्रह दिन बीत गए थे। महाबल ने अपने पुत्र के विषय में जानकारी करने का पूरा प्रयत्न किया। पर बलसार ने कुछ भी अतापता नहीं बताया। वह अपनी बात पर दृढ़ था। बलसार ने एक योजना बनाई। सबसे पहले उसने अपनी पत्नी प्रियसुन्दरी तथा बालक बलसुन्दर को अन्यत्र भिजवा दिया। फिर उसने चंद्रावती के राजा वीरधवल को एक पत्र लिखा। उसे यह ज्ञात नहीं था कि मलयासुन्दरी और कोई नहीं, महाराजा वीरधवल की प्रिय कन्या है। उसने पत्र में लिखा कि 'महाराजश्री ! आप शीघ्र यहां आकर सागरतिलक नगर को हस्तगत करें। आपका शत्रु राजा कंदर्पदेव जलकर भस्म हो गया है। उसके स्थान पर सिद्धराज को राजा बनाया गया है । वह भी आपके प्रति शत्रुता रखता है। उसने मुझे कारावास में डाल रखा है। आप आएं, मुझे मुक्त कराएं और इस राज्य की अपार संपत्ति के स्वामी बनें।' मलयासुन्दरी के पिता महाराजा वीरधवल और महाबल के पिता महाराज सुरपाल-दोनों मित्र-राजा थे। दोनों ने आपस में विचार-विमर्श किया और बलसार के पत्र को महत्त्व देते हुए उसकी बात स्वीकार कर ली। उन्होंने युद्ध की पूरी तैयारी कर ली। एक दूत को सागरतिलक नगर की ओर भेजा। दूत का सत्कार कर उसे राजसभा में लाया गया। उसने कहा-'महाराजा सिद्धराज का कल्याण हो । मैं चंपापुरी के महाराजा वीरधवल का दूत हूं। आपके पास महत्त्वपूर्ण संदेश लेकर आया हूं।' मलया ने यह सुनकर महाबल से कहा- 'स्वामीनाथ ! अपना परिचय...' महाबल बोला-'समय आने पर..." उस दूत ने युद्ध की बात कही और कहा-'आप कारागृह में पड़े हुए बलसार को मुक्त कर दें, अन्यथा बहुत बड़ा रक्तपात होगा।' वाचालता से और भी बहुत कुछ कह डाला। ३०६ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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