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________________ ७० चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ त्रिपार्श्व के माध्यम से उनके सात वर्ण देख सकते हैं । जैसे बैगनी, नीला, आकाशसदृश नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल । इन विकिरणों में एक महत्त्वपूर्ण विशेपता यह है कि क्रमश: इन रंगों में आवृत्ति (Frequency) कम होती है और तरंगदैर्घ्य (wave-length) में अभिवृद्धि होती है । बैंगनी रंग के पीछे की विकिरणों को अपरा बैंगनी (ultra-violet) और लाल रंग के आगे की विकिरणें अवरक्त कही जाती हैं । प्रस्तुत वर्गीकरण में वर्ण की मुख्यता है। किन्तु जितनी विकिरणें हैं उनका लक्षण, आवृत्ति और तरंगदैर्घ्य है। विज्ञान के आलोक में जब हम लेश्या पर चिन्तन करते हैं तो सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट होता है कि छः लेश्याओं के वर्ण और दृष्टिगोचर होने वाले स्पेक्ट्रम (वर्ण-पट) के रंगों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है-- दिखायी दिया जाने वाला स्पेक्ट्रम लेश्या १. अपरा बैंगनी से बैंगनी तक कृष्णलेश्या २. नीला नीललेश्या ३. आकाश सदृश नीला कापोतलेश्या ४. पीला तेजोलेश्या ५. लाल पद्मलेश्या ६. अवरक्त तथा आगे की विकिरणें शुक्ललेश्या डॉ० महावीर राज गेलडा ने 'लेश्या : एक विवेचन' शीर्षक लेख में जो चार्ट दिया है उसमें उन्होंने सप्त वर्ण के स्थान पर पांच ही वर्ण लिये हैं हरा व नारंगी ये दो वर्ण छोड़ दिये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में तेजोलेश्या का रंग हिंगुल की तरह रक्त लिखा है और पद्म लेश्या का रंग हरिताल की तरह पीत लिखा है । किन्तु डॉ० गेलडा ने तेजोलेश्या को पीले वर्ण वाली और पद्म लेश्या को लाल वर्ण वाली माना है, वह आगम की दृष्टि से उचित नहीं है। लाल के बाद आगमकार ने पीत का उल्लेख क्यों किया है इस सम्बन्ध में हम आगे की पंक्तियों में विचार करेंगे। तीन जो प्रारम्भिक विकिरणें हैं, वे लघुतरंग वाली और पुनः-पुनः आवृत्ति वाली होती हैं । इसी तरह कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ तीव्र कर्म बन्धन में सहयोगी व प्राणी को भौतिक पदार्थों में लिप्त रखती हैं । ये लेश्याएँ आत्मा के प्रतिकूल हैं, अतः इन्हें आगम साहित्य में अशुभ व अधर्म लेश्याएँ कहा गया है और इनसे तीव्र कर्म बन्धन होता है। उसके पश्चात् की विकिरणों की तरंगें अधिक लम्बी होती हैं और उनमें आवृत्ति कम होती है। इसी तरह तेजो, पद्म व शुक्ल लेश्याएं तीव्र कर्म बन्धन नहीं करतीं । इनमें विचार, शुभ और शुभतर होते चले जाते हैं । इन तीन लेश्या वाले 1 देखिए- पूज्य प्रवर्तक श्री अंबालाल जी म० अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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