SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वर : एक चिन्तन | ३३ विश्व का निर्माण कर सकता है और वह चाहे तो एक क्षण में उसे नष्ट भी कर सकता है। उसकी लीला का आर-पार नहीं है। उसकी बिना इच्छा के पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । किसी ने उस ईश्वर का निवास वैकुण्ठ में माना, किसी ने ब्रह्मलोक में, किसी ने सातवें आसमान में तो किसी ने समग्र विश्व में उसे व्याप्त माना है। जैन दर्शन इस प्रकार के कर्ता-हर्ता रूप में ईश्वर को नहीं मानता। उसका स्पष्ट मन्तव्य है कि ईश्वर न किसी पर रुष्ट होता है और न तुष्ट होता है । वह न किसी को नरक में भेजता है और न किसी को स्वर्ग में । वह पूर्ण वीतराग है । प्राणी का जो कुछ भी अच्छा या बुरा होता है, वह सब उसके ही कृत कर्मों का फल है । वस्तुतः मानव ईश्वर की सृष्टि नहीं, अपितु ईश्वर ही मानव के उर्वर मस्तिष्क की सृष्टि है । ईश्वर शासक और मनुष्य शासित है, ऐसा मन्तव्य उचित नहीं है । मानवीय चेतना का परम और चरम विकास ही ईश्वरत्व है । इसे प्रत्येक मानव प्राप्त कर सकता है। ईश्वरत्व प्राप्त करने के लिए जाति, कुल, सम्प्रदाय या किसी वर्ग विशेष का भी बन्धन नहीं है जो भी मानव आध्यात्मिक विकास की उच्चतम भूमिका पर पहुंच जाता है, वही ईश्वर बन जाता है। वैदिक दार्शनिकों ने जैन दर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन घोषित किया है । पर जैन दर्शन वस्तुत: अनीश्वरवादी नहीं है। जैन दर्शन ने ईश्वर को सत्य स्वरूप, ज्ञान स्वरूप, आनन्द स्वरूप, वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में माना है। वह कर्मफल प्रदाता नहीं है, अपने सद्-असद् कर्म के अनुसार ही जीव को. सुख-दुःख की उपलब्धि होती है, स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होती है । जैन दर्शन के अनुसार यह विराट् सृष्टि मूलतः जड़ और चेतन इन दो तत्त्वों का ही विस्तार है । ये दोनों तत्त्व अनादि और अनन्त हैं । विभिन्न दर्शनों और आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह निर्विवाद है कि सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती और जो सत् है, उसका कभी सर्वथा विनाश नहीं होता। "नासतो विद्यते भावः, नाभावो जायते सतः" इस सर्वसम्मत सिद्धान्त के अनुसार जड़ और चेतन तत्त्व सदा से हैं और सदैव विद्यमान रहेंगे । ऐसी स्थिति में सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश सम्भव नहीं हैं, और न सृष्टिकर्ता किसी ईश्वर को या अन्य सत्ता को स्वीकार करने की आवश्यकता है। ___सामान्य बोल-चाल में जिसे उत्पाद और विनाश कहा जाता है, वह वास्तव में पदार्थों का परिणमन रूपान्तर मात्र है । मृत्तिका का पिण्ड रूप में रूपान्तर होता है और पिण्ड का घट के रूप में । यही परिणमन घट का उत्पाद कहलाता है । घट का टुकड़ों के रूप में या बारीक रेत के रूप में बदल जाना ही घट का विनाश कहा जाता है, शून्य हो जाना नहीं । कुम्हार लाख प्रयत्न करके भी शून्य से घट का निर्माण नहीं कर सकता । इसी प्रकार किसी एक परमाणु को शून्य-अभाव रूप में परिणत नहीं किया जा सकता । यह सत्य है तो इतनी विशाल सृष्टि शून्य में से किस प्रकार बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy