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________________ ईश्वर : एक चिन्तन | १६ दे रहे हैं । सूर्य की चिलचिलाती धूप, उमड़-घुमड़ कर घनघोर गर्जना करने वाली मेघघटाएँ, चंचल चपला की चमक, इन्द्रधनुष का सुहावना दृश्य, संध्या और उषा की सुहावनी सुषमा, चन्द्रमा की चारु चन्द्रिका, ग्रह-नक्षत्रों की जगमगाहट, समुद्र का गम्भीर गर्जन-तर्जन, सरिता का सरस संगीत, पक्षियों का कलरव, गगनचुम्बी पर्वतमालाएँ, जाज्वल्यमान अग्नि, भीष्म ग्रीष्म की ऊष्मा, सनसनाती सर्दी, प्रलयंकारी आँधी, शीतल मन्द सुगन्धित पवन, सुन्दर वृक्षावली, रंग-बिरंगे विकसित पुष्प तथा अद्भुत पशु-पक्षियों को देखकर मानव विस्मय से विमुग्ध बन गया और उनमें दैवीशक्ति का आरोप कर उसने उनकी स्तुतियाँ करना प्रारम्भ किया । ऋग्वेद में द्योः, मरुत, इन्द्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, पर्जन्य प्रभृति में ईश्वर की कल्पना कर उनकी स्तुतियाँ की गयी हैं। उसके पश्चात् अदिति, प्रजापति, हिरण्यगर्भ आदि अमूर्त कल्पनाओं का दैवीकरण किया गया । वैदिक कालीन देव रहस्यमय, दिव्यता और भव्यता के पुनीत प्रतीक रहे हैं । उनके अन्तर्मानस में दया की निर्मल भावना है, वे संसार का कल्याण करने के इच्छुक हैं । वे मानवों के उद्धार के लिए अवतार भी ग्रहण करते हैं। उनमें क्रूरता का पूर्ण अभाव है। वैदिक परम्परा के ऋषि जब किसी भी देव की स्तुति करते हैं, तब उस देव को सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ मानकर उसकी स्तुति करते हैं। इन्द्र की स्तुति करते समय इन्द्र को इतनी अधिक प्रधानता दी गयी है कि पाठक को यह अनुभव होने लगता है कि इन्द्र ही सब कुछ है । पर वही ऋषि जब अग्नि की स्तुति करता है तो अग्नि की गौरव-गरिमा में ही उसके स्वर मुखरित होते हैं । जब वह वरुण या अन्य किसी स्तुति करता है तो उसी में लीन हो जाता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह केवल इन्द्र को ही आधार मानता है, अग्नि को नहीं । वेद में बहुदेववाद के साथसाथ एकेश्वरवाद के बीज भी सन्निहित हैं, ऐसा वेद-साहित्य के मर्मज्ञों का मानना ऋग्वेद के अतिरिक्त यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी देववाद की वे स्वर-लहरियां झनझनाती रही हैं । वेदों के पश्चात् ब्राह्मण-ग्रन्थ आते हैं। उन ग्रन्थों में देवी-देवताओं की संख्या में अभिवृद्धि हुई। उन्होंने ग्राम देवता, नगर देवता, वंश देवता आदि को भी देवकोटि में रखा है । जातिभेद के अनुसार देवताओं के भी विभिन्न स्तर प्राप्त होते हैं । उपनिषद् युग में ईश्वर उपनिषद् युग भारतीय चिन्तन के इतिहास में एक नये युग का प्रतीक है । वैदिक विचारधारा श्रमण विचारधारा से प्रभावित हुई तब उपनिषद् युग में वैदिक विचारधारा में तीव्रता के साथ गम्भीरता, आध्यात्मिकता और तपश्चर्या आदि का समावेश हुआ । उपनिषद् वेदों के ही अन्तिम भाग माने जाते हैं । वेदों में प्राकृतिक तत्वों की प्रधानता के आलोक में चिन्तन होता रहा, जबकि उपनिषदों में आत्मतत्व के सम्बन्ध में गम्भीर अनुचिन्तन प्रारम्भ हुआ। मानव बहिर्मुख से अन्तर्मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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