SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ ब्रह्म में एक रूप हो जाते हैं और दूसरे पुष्टि भक्ति जीव ऐसे हैं जो परब्रह्म स्वरूप होने पर भी भक्ति के लिए पुनः अवतीर्ण होते हैं और मुक्तवत् संसार में विचरण करते हैं। बौद्ध दृष्टि से ___बौद्ध दर्शन की दृष्टि से जीव या पुद्गल कोई भी शाश्वत द्रव्य नहीं है, अत: पुनर्जन्म के समय वे जीव का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना नहीं मानते हैं । उनका अभिमत यह है कि एक स्थान पर एक चित्त का निरोध होता है और दूसरे स्थान पर नये चित्त की उत्पत्ति होती है। राजा मिलिन्द ने आचार्य नागसेन से प्रश्न किया कि पूर्वादि दिशाओं में ऐसा कौन-सा स्थान विशेष है जिसके सन्निकट निर्वाण स्थान की अवस्थिति है ? आचार्य ने कहा-निर्वाण स्थान कहीं किसी दिशा विशेष में अवस्थित नहीं है, जहां पर जाकर वह मुक्तात्मा निवास करती हो । प्रतिप्रश्न किया गया-जैसे समद्र में रत्न, फल में गन्ध, खेत में धान्य आदि का स्थान नियत है वैसे ही निर्वाण का स्थान भी नियत होना चाहिए । यदि निर्वाण का स्थान नहीं है तो फिर यह क्यों नहीं कहते कि निर्वाण भी नहीं है । नागसेन ने कहा-राजन् ! निर्वाण का नियत स्थान न होने पर भी उसकी सत्ता है । निर्वाण कहीं पर बाहर नहीं है । उसका साक्षात्कार अपने विशुद्ध मन से करना पड़ता है । जैसे दो लकड़ियों के संघर्ष से अग्नि पैदा होती है। यदि कोई यह कहे कि पहले अग्नि कहाँ थी तो यह नहीं कहा जा सकता वैसे ही विशुद्ध मन से निर्वाण का साक्षात्कार होता है, किन्तु उसका स्थान बताना सम्भव नहीं। राजा ने पुनः प्रश्न किया-हम यह मानलें कि निर्वाण का नियत स्थान नहीं है, तथापि ऐसा कोई निश्चित स्थान होना चाहिए जहाँ पर अवस्थित रहकर पुद्गल नवोण का साक्षात्कार कर सके। ___ आचार्य ने उत्तर देते हुए कहा-राजन् ! पुद्गल शील में प्रतिष्ठित होकर किसी भी आकाश प्रदेश में रहते हुए निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है।' जैन दर्शन जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्वगमन है । जब वह कर्मों से पूर्ण मुक्त होता है तब वह ऊर्ध्वगमन करता है और ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग पर 1 मिलिन्द प्रश्न ४१८६२-६४ । २ (क) उत्तराध्ययन १९८२ । (ख) प्रशमरति प्रकरण २९५ का भाष्य । (ग) तत्त्वार्थराजवातिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy