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________________ भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष-मार्ग ७ इसके अतिरिक्त अवस्था-भेद की आपत्ति युक्ति-प्रयुक्ति से पृथक कर कूटस्थनित्यत्व की मान्यता से चिपके रहते हैं । सांख्य-योग दर्शन न्याय-वैशेषिक के समान गुण-गुणी का भेद नहीं मानता है । न्याय-वैशेषिक के समान गुणों का उत्पाद-विनाश मानकर पुरुष के कूटस्थनित्यत्व का रक्षण नहीं किया जा सकता, अतः उसने निर्गुण पुरुष मानने की पृथक राह अपनायी। ___ उन्होंने कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष आदि अवस्थाएँ पुरुष में उपचरित मानी हैं और कूटस्थनित्यत्व पूर्ण रूप से घटित किया है । ___ केवलाद्वैती शंकर या अणुजीववादी रामानुज तथा वल्लभ ये सभी मुक्ति दशा में चैतन्य और आनन्द का पूर्ण प्रकाश या आविर्भाव अपनी-अपनी दृष्टि से स्वीकार कर कूटस्थनित्यता घटित करते हैं। एक दृष्टि से देखें तो औपनिषद् दर्शन की कल्पना न्याय-वैशेषिक दर्शन के साथ उतनी मेल नहीं खाती जितनी सांख्ययोग के साथ मेल खाती है। सभी औपनिषद् दर्शन मुक्ति अवस्था में सांख्य-योग के समान शुद्ध चेतना रूप में ब्रह्म तत्त्व या जीव तत्त्व का अवस्थान स्वीकार करते हैं। बौद्धदर्शन अन्य दर्शनों में जिसे मोक्ष कहा है उसे बौद्ध दर्शन ने निर्वाण की संज्ञा प्रदान की है। बुद्ध के अभिमतानुसार जीवन का चरम लक्ष्य दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है, अथवा निर्वाण है। क्योंकि समस्त दृश्य सत्ता अनित्य है, क्षणभंगुर है, एवं अनात्म है, एक मात्र निर्वाण ही साध्य है। निर्वाण बौद्ध दर्शन का महत्त्वपूर्ण शब्द है। प्रो० मूर्ति ने बौद्ध दर्शन के इतिहास को निर्वाण का इतिहास कहा है। प्रो० यदुनाथ सिन्हा निर्वाण को बौद्ध शीलाचार का मूलाधार मानते हैं।' __अभिधम्म महाविभाषा शास्त्र में निर्वाण शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां बतायी हैं। जैसे 'वाण' का अर्थ 'पुनर्जन्म का रास्ता' और 'निर्' का अर्थ छोड़ना है, अतः 'निर्वाण' का अर्थ हुआ स्थायी रूप से पुनर्जन्म के सभी रास्तों को छोड़ देना। 'वाण' का दूसरा अर्थ दुर्गन्ध और निर् का अर्थ 'नहीं' है, अतः निर्वाण एक ऐसी स्थिति है जो दुःख देने वाले कर्मों की दुर्गन्ध से पूर्णतया मुक्त है । वाण का तीसरा अर्थ घना जंगल है और निर् का अर्थ स्थायी रूप से छुटकारा पाना। 1 गीता १३।३१-३२ ।। 2 अध्यात्म विचारणा के आधार से पृ० ८४ । • भारतीय दर्शन-डॉ० बलदेव उपाध्याय । • हिस्ट्री ऑफ फिलासफी-ईस्टर्न एण्ड वेस्टर्न, वा० पृ० २१२ । 5 हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलासफी, पृ० ३२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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