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________________ मारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष-मार्ग | ५ सांख्य और योग पुरुष को एक नहीं अनेक मानता है, यह जो अनेकता है वह संख्यात्मक है, गुणात्मक नहीं है । एकात्मवाद के विरुद्ध उसने यह आपत्ति उठायी है कि यदि पुरुष एक ही है तो एक पुरुष के मरण के साथ सभी का मरण होना चाहिए। इसी प्रकार एक के बन्ध और मोक्ष के साथ सभी का बन्ध और मोक्ष होना चाहिए । इसलिए पुरुष एक नहीं, अनेक है। न्याय-वैशेषिकों के समान वे चेतना को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानते । चेतना पुरुष का सार है। पुरुष परम ज्ञाता है । स्वरूप की दृष्टि से पुरुष, वैष्णव-वेदान्तियों की आत्मा, जैनियों के जीव और लाईवनित्स के चिद् अणु के सदृश है । सांख्य दृष्टि से बन्धन का कारण अविद्या या अज्ञान है । आत्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है । पुरुष अपने स्वरूप को विस्मृत होकर स्वयं को प्रकृति या उसकी विकृति समझने लगता है, यही सबसे बड़ा अज्ञान है । जब पुरुष और प्रकृति के बीच विवेक जात होता है-"मैं पुरुष हूँ, प्रकृति नहीं," तब उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। कपिल मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं करते। वे तथागत बुद्ध के समान सांसारिक दुःखों की उत्पत्ति और उसके निवारण का उपाय बतलाते हैं किन्तु कपिल के पश्चात् उनके शिष्यों ने मोक्ष में स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन किया है । बन्धन का मूल कारण यह है-पुरुष स्वयं के स्वरूप को विस्मृत हो गया। प्रकृति या उसके विकारों के साथ उसने तादात्म्य स्थापित कर लिया है, यही बन्धन है । जब सम्यग्ज्ञान से उसका वह दोषपूर्ण तादात्म्य का भ्रम नष्ट हो जाता है तब पुरुष प्रकृति के पंजे से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, यही मोक्ष है। सांख्यदर्शन में मोक्ष की स्थिति को कैवल्य भी कहा है । सांख्य दृष्टि से पुरुष नित्य मुक्त है । विवेक ज्ञान के उदय होने से पहले भी वह मुक्त था, विवेक ज्ञान का उदय होने पर उसे यह अनुभव होता है कि वह तो कभी भी बन्धन में नहीं पड़ा था, वह तो हमेशा मुक्त हो था, पर उसे प्रस्तुत तथ्य का परिज्ञान न होने से वह अपने स्वरूप को भूल कर स्वयं को प्रकृति या उसका विहार समझ रहा था। कैवल्य और कुछ भी नहीं उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। ___ सांख्य-योगसम्मत मुक्ति-स्वरूप में एवं न्याय-वैशेषिकसम्मत मुक्ति-स्वरूप में यह अन्तर है कि न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा में आत्मा अपना द्रव्यरूप होने पर भी वह चेतनामय नहीं है । मुक्ति दशा में चैतन्य के स्फुरणा या अभिव्यक्ति जैसे व्यवहार को अवकाश नहीं है । मुक्ति में बुद्धि, सुख आदि का आत्यन्तिक उच्छेद होकर आत्मा केवल कूटस्थ नित्य द्रव्यरूप से अस्तित्व धारण करता है । सांख्य-योग की दृष्टि से आत्मा सर्वथा निर्गुण है, स्वतः प्रकाशमान चेतना रूप है और सहज भाव से अस्तित्व धारण करने वाला है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा में चैतन्य और ज्ञान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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