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________________ ६४ | चितन के विविध आयाम [खण्ड २] गणि ने गणधरसार्धशतक में हरिभद्र की जाति ब्राह्मण बताई है। प्रभावक चरित में उन्हें पुरोहित कहा गया है। आचार्य हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत थे, किन्तु पुरातत्ववेत्ता मुनि श्री जिनविजय जी ने प्रबल प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया है कि वीर सम्वत् ७५७ से ८२७ तक उनका जीवन काल है। अब इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं रहा है। उन्होंने व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और दर्शन का गम्भीर अध्ययन कहाँ पर किया था, इसका उल्लेख नहीं मिलता है । वे एक बार चित्तौड़ के मार्ग से जा रहे थे, उनके कानों में एक गाथा पड़ी। गाथा प्राकृत भाषा की थी । संक्षिप्त और संकेतपूर्ण अर्थ लिए हुई थी। अतः उसका मर्म उन्हें समझ में नहीं आया । अन्होंने गाथा का पाठ करने वाली साध्वी से उस गाथा के अर्थ को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की । साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्त का परिचय कराया। प्राकृत साहित्य और जैन-परम्परा का प्रामाणिक और गम्भीर अभ्यास करने के लिए उन्होंने जैनेन्द्री दीक्षा धारण की और उस साध्वी के प्रति अपने हृदय की अनन्त श्रद्धा को, स्वयं को उनका धर्मपुत्र बताकर व्यक्त की है। वे गृहस्थाश्रम में संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । श्रमण बनने पर प्राकृत भाषा का गहन अध्ययन किया । दशवैकालिक, आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, ओपनियुक्ति, चैत्य-वन्दन, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम और पिण्ड नियुक्ति आदि आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखीं। आगम साहित्य के वे प्रथम टीकाकार हैं । अष्टक प्रकरण, धर्मबिन्दु, पञ्चसूत्र, व्याख्या भावना सिद्धि, लघुक्षेत्र समासवृत्ति, वर्ग केवली सूत्र वृत्ति, हिंसाष्टक, अनेकान्त जयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तसिद्धि, तत्वार्थसूत्रलघवृत्ति, द्विज वदन-चपेटा, न्याय प्रवेश टीका, न्यायावतारवृत्ति, लोकतत्व निर्णय शास्त्रवार्ता समुच्चय, सर्वज्ञ सिद्धि, षड्दर्शन समुच्चय ,स्याद्वाद कुचोध-परिहार, योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, षोडशक प्रकरण, वीरस्तव, संसार दावानल स्तुति, प्रभृति अनेक मौलिक-ग्रन्थ उन्होंने संस्कृत भाषा में रचे हैं । प्राकृत भाषा में भी उन्होंने विपुल साहित्य का सृजन किया है । संस्कृतवत ही प्राकृत भाषा पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। उन्होंने धर्म, दर्शन, 1 एवं सो पंडितगव्वमुव्वहमाणो हरिभट्टो नाम माहणो।' ३ प्रभावक चरित्र शृग ६, श्लोक ८. । जैन साहित्य संशोधक वर्ष १. अंक-१. 'चक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीणं केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की, केसी अ चक्की अ॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा-४२१. 5 धर्मतो याकिनी महत्तरा सूनुः , -आवश्यकवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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