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________________ कर्मयोगी श्रीकृष्ण के आगामी भव - एक अनुचितन | १७ ने और गुणस्थानकमारोह' की स्वोपज्ञवृत्ति में रत्नशेखरसूरि ने लिखा है कि यदि पूर्वबंध नहीं हुआ है तो क्षायिक सम्यक्त्वी को उसी भव में मोक्ष होता है, यदि आयुष्य का पूर्वबंध हो चुका है तो तृतीय भव में मोक्ष होता है । प्रायोग्यबद्ध असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले की चतुर्थभव में मुक्ति होती है अर्थात् कोई जीव यौगलिक में उत्पन्न हुआ है तो वह वहाँ से आयु पूर्णकर देवलोक में ही जाता है इस लिए चार भव बतलाए हैं। क्योंकि कहा भी है- मिथ्यात्व आदि सातों प्रकृतियों के क्षीण होने पर जो पूर्वबद्ध आयुष्यवाला है उसका तीन या चार भव में मोक्ष होता है । उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में क्षायिक सम्यक्त्वी के उत्कृष्ट तीन भव बताये हैं । विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थों के अनुसार चार भव भी हो सकते हैं । वसुदेव हिण्डी, कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थ आदि के अनुसार कृष्ण के पाँच भव हैं और उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व था । श्रीकृष्ण को क्षायिक सम्यक्त्व था ऐसा स्पष्ट उल्लेख आगम साहित्य में कहीं पर भी मेरे देखने में नहीं आया है किन्तु कर्म-ग्रन्थ, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र आदि में क्षायिक सम्यक्त्व का स्पष्ट उल्लेख है । कितने ही लेखकों ने कृष्ण को क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी माना है और उनके भवों के प्रश्न का सामाधान करने का प्रयास किया है, पर इसके लिए उन्होंने किसी [क्रमशः ] अथ तृतीयभवे मोक्षगमनेऽसंख्येय वर्षायुष्केषूत्पत्तिस्तद्भवमोक्षगमनं च चरम देहत्वमिति क्रमेण योजनीयम् । इदं च प्रायोवृत्त्योक्तमिति संभाव्यते यतः क्षीणसप्तकस्य कृष्णस्य पंचमे भवेऽपि मोक्षगमनं श्रूयते । उक्तं च नरयाउ नरभवम्मि देवो होऊण पंचमे कप्पे | तत्तो चुओ समाणो बारसमो अममतित्थयरी ॥ इत्थमेव दुःसहादीनामपि क्षायिकसम्यक्त्वमागमोक्तं युज्यत इति यथागमं विभावनीयं । —कर्मग्रन्थ, ५-६, पृ० ३५६, कर्मप्रकृति, उपशमनामप्रकरणम् पृ० २९ । 1 यथापूर्वकरणेनैव कृत त्रिपुञ्जस्य जीवस्य चतुर्थं गुणस्थानादारभ्य क्षपकत्वे प्रारब्धे ऽनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य मिथ्यात्वमिश्र सम्यक्त्वरूपपुञ्जत्रयस्य च क्षये क्षायिकं सम्यक्त्वं भवति, ततोऽसौ क्षायिकी दृष्टिस्तु पुनरबद्धायुष्कस्य तु जीवस्य तृतीये भवे असंख्यात जीविनां प्रायोग्यबद्धायुष्कस्य चतुर्ये भवे मुक्तये स्यात् तथा चाह - मिच्छाइए खइओ, सो सत्ताणि खीणि ठाइ बद्धाऊ । चउति भव भाविमुक्खो तब्भवसिद्धि अ इअरो अ | Jain Education International गुणस्थान कमारोह, २२ वृत्ति, पृ० १६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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