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________________ ८८ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ पद्यात्मक जो व्याख्याएं लिखी गयीं हैं वे भाष्य के नाम से प्रसिद्ध हुईं । भाष्य में सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गयी है । व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ भेद, निमित्त, अध्ययनविशेष तदह परिषद् आदि का विवेचन किया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए अनेक दृष्टान्त भी दिये हैं । भिक्षु, मास, परिहार, स्थान, प्रतिसेवना, आलोचना, आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से विचार किया है । आधाकर्म से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यक्तिक्रम, अतिचार के लिए पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त का विधान है । मूलगुण और उत्तरगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगुण हैं । इनके क्रमशः ४२, ८, २५, १२, १२ और ४ भेद होते हैं । प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं । जो तपाई प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। उनके भी भेदप्रभेद किये गये हैं। प्रायश्चित्त के योग्य चार प्रकार के हैं (१) उभयतर-जो स्वयं तप की साधना करता हुआ भी दूसरों की सेवा करता है । (२) आत्मतर-जो केवल तप ही कर सकता है। (३) परतर-जो केवल सेवा ही कर सकता है । (४) अभ्यतर-जो तप और सेवा दोनों में से एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है। आलोचना, आलोचनाई और आलोचक के बिना नहीं होती । स्वयं आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपब्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिधावी इन गुणों से युक्त होता है। आलोचक भी जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, शान्त, दान्त, अमायी, अपश्चातापी इन दस गुणों से युक्त होता है । आलोचना के दोष, तद्विषयभूत द्रव्य आदि प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भाष्यकार ने विस्तार से प्रकाश डाला है। परिहार तप का वर्णन करते हुए सुभद्रा और मेघावती का उदाहरण दिया है । आरोपणा के प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना, हाडहडा, ये पांच प्रकार बताये हैं। शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पूनः गच्छ में सम्मिलित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है । पार्श्वस्थ, यथाछन्द, कुशील, अवसन्न और संसक्त के स्वरूप पर विचार चर्चा की है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान ये तीन कारण हैं । दीप्तचित्त का कारण सम्मान है । क्षिप्तचित्तवाला मौन रहता है और दीप्तचित्तवाला बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है । भाष्यकार ने गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवर्तिनी आदि की योग्यता पर भी चिन्तन किया है । आचार्य और उपाध्याय के अतिशय बताये हैं जिनका श्रमणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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