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________________ पारिभाषिक शब्द-कोश : परिशिष्ट ४ ४०७ वैश्रवण-कुबेर शय्यातर–साधु जिसके मकान में रहते हैं, वह शय्यातर कहलाता है । शल्य-जिससे पीड़ा हो । वह तीन प्रकार का है। (१) माया शल्य-कपट भाव रखना। (२) निदानशल्य-राजा या देवता आदि की ऋद्धि को निहार कर मन में इस प्रकार दृढ़ निश्चय करना कि मुझे भी मेरे तप जप का फल हो तो इस प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त हों। (३) मिथ्या दर्शन शल्य -- विपरीत श्रद्धा का होना। शिक्षाव्रत - पुनः पुन: सेवन करने योग्य अभ्यास प्रधान व्रत, वे चार हैं(१) सामायिक व्रत, (२) देशावकाशिक व्रत, (३) पौषधोपवासव्रत, (४) अतिथि संविभाग व्रत । शुक्लध्यान-निर्मल प्रणिधान उत्कृष्ट समाधि अवस्था । इसके चार प्रकार है---(१) पृथक्त्व वितर्क सविचार, (२) एकत्व वितर्क अविचार (३) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपति (४) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति । शेषकाल-वर्षा-चातुर्मास के अतिरिक्त का समय । शैलेशी अवस्था-चौदहवें गुणस्थान में जब मन, वचन, और काय योग का निरोध हो जाता है तब उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं । इसमें ध्यान की पराकाष्ठा के कारण मेरु सदृश निष्प्रकम्पता व निश्चलता आती है। श्रुतज्ञान- शब्द संकेत के आधार पर होने वाला ज्ञान । श्रुतभक्ति-श्रुतज्ञान का अनवद्यप्रचार प्रसार तथा उसके प्रति होने वाली जन-अरुचि को दूर करना । संघ---गण के समुदाय को संघ कहते हैं। संथारा-अन्तिम समय में आहार आदि का परित्याग करना। संलेखना-शारीरिक तथा मानसिक एकाग्रता से कषाय आदि का शमन करते हुए तपस्या करना। संवर-कर्म बन्ध करने वाले आत्म परिणामों का निरोध ! संस्थान-शरीर का आकाश । समचतुरस्र--पुरुष जब सुखासन (पालथीं लगाकर) से बैठता है तो उसके दोनों घुटनों का और दोनों बाहुमूल-स्कंधों का अन्तर (दायां घुटना बायां स्कंध, बायां घुटना दायां स्कंध) इन चारों का बराबर अन्तर रहे वह समुचतुरस्र संस्थान कहलाता है । भगवती सूत्र की टीका में अभयदेव ने लिखा है---जो आकार सामुद्रिक आदि लक्षण शास्त्रों के अनुसार सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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