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________________ पारिभाषिक शब्द-कोष : परिशिष्ट ४ ४०३ निकाचित-गाढ, जिन कर्मों का फल बंध के अनुसार निश्चित ही भोगा जाता है। निदान-फलप्राप्ति की आकांक्षा-यह एक प्रकार का शल्य है। राजा देवता, आदि की ऋद्धि को देखकर या सुनकर मन में यह अध्यवसाय करना कि मेरे द्वारा आचीर्ण ब्रह्मचर्य, तप आदि अनुष्ठानों के फलस्वरूप मुझे भी ये ऋद्धियां प्राप्त हों। निर्जरा--कर्म-मल का एक देश से क्षय होना। नौ योजन-३ . कोस । चार कोस का एक योजन होता है। पंच मुष्टिक लुचन---मस्तक को पाँच भागों में विभक्त कर हाथों से बालों को उखाड़ना। पाँच दिव्य-तीर्थंकर या विशिष्ट महापुरुषों के द्वारा आहार ग्रहण करने के समय प्रकट होने वाली पाँच विभूतियाँ । १ विविध रत्न, २ वस्त्र, ३ एवं फूलों की वर्षा, ४ गंन्धोदक वर्षा, ५ देवताओं के द्वारा दिव्य घोष । परीषह - साधु जीवन में होने वाले विविध प्रकार के शारीरिक कष्ट पर्याय-पदार्थों का बदलता हुआ रूप । पल्योपम-एक दिन से सात दिन की आयु वाले उत्तर कुरु में उत्पन्न हुए यौगलिकों के केशों के असंख्य खण्ड कर एक योजन प्रमाण गहरा, लम्बा व चौड़ा कुआ ठसाठस भरा जाय । वह इतना दबादबाकर भरा जाए कि जिससे उसे अग्नि जला न सके । पानी अन्दर प्रवेश न कर सके और चक्रवर्ती की सम्पूर्ण सेना भी उस पर से गुजर जाय तो भी जो अंश मात्र भी लचक न जाय । सौ-सौ वर्ष के पश्चात् उस कुए में से एक-एक केश-खण्ड निकाला जाय । जितने समय में वह कुआ खाली होता है, उतने समय को पल्योपम कहते हैं। पादोपगमन-अनशन का वह प्रकार, जिसमें श्रमणों द्वारा दूसरों की सेवा का और स्वयं की चेष्टाओं का त्याग कर पादप-वृक्ष की कटी हुई डाली की तरह निश्चेष्ट होकर रहना। जिसमें चारों प्रकार के आहार का त्याग होता है । यह निर्हारिम और अनिएरिम रूप से दो प्रकार का है। (१) निर्हारिम-जो साधु उपाश्रय में पादोपगमन अनशन करते हैं, मृत्यूपरान्त उनके शव को अग्नि संस्कार के लिए उपाश्रय से बाहर लाया जाता है अतः वह देह त्याग निर्हारिम कहलाता है । निर्हार का अर्थ हैबाहर निकालना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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