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________________ महाभारत का युद्ध २६३ भीष्म पितामह का पाण्डवों पर स्नेह है पर इस समय वे दुर्योधन के ऐसे वशवर्ती हो चुके हैं कि उसका ही जय-जयकार चाहते हैं । दुर्योधन पाण्डवों को भूमि देना नहीं चाहता । वह युद्ध करने को उद्यत है। उसने युद्ध के लिए सेना तैयार कर रखी है और युद्ध के लिए आपको चुनौती दी है। यदि आप युद्ध भूमि में जीतकर भूमि लेना चाहें तो मिल सकती है अन्यथा संभव नहीं है ।" कृष्ण ने दूत से कहा - " द्विजश्रेष्ठ ! मैं तो पहले ही जानता था कि यह कार्य बिना दण्ड के संभव नहीं है, तथापि लोकापवाद के भय से मैंने आपको उसके पास प्रेषित किया था ।" संजय का आगमन : दूसरे ही दिन धृतराष्ट्र की ओर से सारथी संजय दूत बनकर श्रीकृष्ण की राजसभा में आया। उसने धृतराष्ट्र का सन्देश धर्मराज को सुनाते हुए कहा - धर्मराज ! वस्तुतः तुम धर्म के साक्षात् अवतार ही हो। मैंने विविध प्रकार से दुर्योधन को समझाया पर वह समझता नहीं है । तुम जानते हो कि दुष्ट और शिष्ट में यही अन्तर है कि दुष्ट धर्म को छोड़कर लोभ को अपनाता है और शिष्ट धर्म के लिए लोभ छोड़ देता है । वह अपने भाइयों की घात करने की अपेक्षा भयंकर जंगलों में भटकते रहना, भीख मांगकर खा लेना और भूखे पड़े रहना अच्छा समझता है । वह पहले अपने भाइयों को महत्त्व देता है । यह नहीं कहा जा सकता कि युद्ध में कौन विजय को वरण करेगा ? कभी-कभी दुर्बल व्यक्ति भी युद्ध में जीत जाता है और बलवान् भी हार जाता है । सम्पत्ति नाशवान् है, वह आज है कल नहीं, अतः धर्मराज, तुम्हें गहराई से विचार करना है। कि कौन-सा कार्य उचित है ? और कौन-सा नहीं ? धर्मराज ने मुस्कराते हुए कहा - पिता क्या है, न्याय क्या है, शिष्ट के क्या कर्तव्य हैं, ४. महाभारत के अनुसार संजय दूत बनकर पाण्डवों के पास जाता है। उसमें धृतराष्ट्र संजय को जो सन्देश देते हैं उसमें धृतराष्ट्र का आन्तरिक प्रेम पाण्डवों के प्रति झलक रहा है— देखो महाभारत - - उद्योगपर्व अ० २२ वां । Jain Education International धृतराष्ट्र ने धर्म आदि बातें गंभीर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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