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________________ द्रौपदी का स्वयंवर और अपहरण २७७ वैतालिक समुद्र था वहाँ पहुँचे और पाण्डवों से मिले । वहीं छावनी डाली। __ श्रीकृष्ण ने चतुरंगिणी सेना को विसजित किया । अष्टम तप कर सुस्थित देव को बुलाया और उसे अमरकंका राजधानी जाकर द्रौपदी देवी की अन्वेषणा का प्रयोजन बताया। ___सुस्थित देव ने कहा-देवानुप्रिय ! जिस प्रकार राजा पद्मनाभ ने पूर्व सांगतिक देव द्वारा उसका अपहरण किया, उसी प्रकार चाहो तो मैं भी द्रौपदी देवी को धातकीखण्ड द्वीप की अमरकंका राजधानी से उठाकर हस्तिनापुर में रख दूँ। अथवा चाहो तो उस पद्मनाभ को उसके पुर, बल, वाहन सहित लवरण समुद्र में डुबा हूँ। कृष्ण-तुम संहरण न करो, हम छहों के रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दो। सुस्थित देव ने कहा-ऐसा ही हो। इस प्रकार कह सुस्थित देव ने समुद्र के बीच जाने के लिए रास्ता दिया। कृष्ण पाँच पाण्डवों के साथ छह रथों में बैठकर लवणसमुद्र के मध्य में होते हए आगे बढ़े और जहाँ अमरकंका नगरी का उद्यान था वहाँ पर जाकर रथों को ठहराया। फिर श्रीकृष्ण ने दारूक सारथी को कहा--जाओ अमरकंका नगरी में प्रवेश करो। राजा पद्मनाभ के पास जाकर दायें पैर से उसके पादपीठ को ठुकराना और भाले के अग्रभाग से उसे यह लेख देना । नेत्रों को लाल कर, रुष्ट, क्रुद्ध कुपित और प्रचण्ड होकर इस प्रकार कहना 'हे पद्मनाभ ! अप्रार्थित (मौत) की प्रार्थना करने वाले ! दुरन्त और प्रान्त लक्षण वाले ! हीनपुण्य चतुर्दशी को जन्मे ! श्री, ह्री और बुद्धि से रहित ! आज तू जीवित नहीं रह सकता। क्या तुझे यह ज्ञात नहीं कि तूने कृष्ण वासुदेव की बहन द्रौपदी का अपहरण किया है ? तथापि यदि तू जीवित रहना चाहता है तो द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव के हाथ सौंप दें। अन्यथा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकल । स्वयं कृष्ण वासुदेव और पाँचों पाण्डव द्रौपदी के त्राण के लिए आये हुए हैं ।१२ १२. एवं वदह-हं भो पउमाणाहा ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्ण चाउदसा ! सिरिहिरिधीपरिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि, किं णं तुम ण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणि दोवइ देवि इहं हव्वं आणमाणे ? तं एयमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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