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________________ तीर्थकर जीवन १३५ करवाया और मेरी आज्ञा की अवहेलना की तो तुम्हें कठोर दण्ड दिया जायेगा। __ वीरक श्रीकृष्ण के आदेश को सुनकर भय से कांप उठा। उसने घर आते ही केतुमंजरी को आज्ञा के स्वर में कार्य करने के लिए कहा। केतुमंजरी ने ज्योंही वीरक का आदेश सुना, उसे क्रोध आ गया। उसने कहा--वीरक ! तुम जानते हो ! मैं वासुदेव श्रीकृष्ण की पुत्री हूँ, मुझे कार्य के लिए आदेश देने का अर्थ मेरा अपमान करना है। ___ वीरक ने आव देखा न ताव, उसे पीटना प्रारंभ किया। केतुमंजरी भाग कर अपने पिता के पास पहुँची। वीरक की शिकायत करने लगी। ___ कृष्ण ने कहा- मैंने पूर्व ही तुम्हें स्वामिनी बनने के लिए कहा था न ! पर तूमने तो दासी बनना ही पसन्द किया । अब मैं क्या करू ? तुम्हें अपने पति की आज्ञा का पालन करना ही चाहिए। केतुमंजरी कृष्ण के चरणों में गिरकर बोली- पिताजी ! मैंने माता जी के कहने से भूल की । अब मैं दासी न रहकर रानी बनना चाहती हूं ? केतुमंजरी के अत्यधिक आग्रह पर वीरक को समझाकर उसे अरिष्टनेमि के पास दीक्षा दिलवाई। उसके पश्चात् किसी ने भी दासी बनने की बात नहीं कही। कृष्ण का वन्दन : एक समय श्रीकृष्ण भगवान् अरिष्टनेमि की सेवा में गये । सन्त मण्डली को देखकर मन में विचार आया--मैं प्रतिदिन जब कभी दर्शन के लिए आता हूँ तब भगवान् को और अन्य विशिष्ट सन्तों को वन्दन कर बैठ जाता हैं, क्यों न आज सभी सन्तों को विधियुक्त वन्दन किया जाय । भावना की उच्चता बढ़ी, वे सभी सन्तों को अनुक्रम से वन्दन करने लगे। उनका मित्र वीर कौलिक भी साथ था। श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह भी उनके देखादेखी वन्दन करने लगा । वन्दन पूर्ण हुआ। श्रीकृष्ण बैठे। उन्होंने भगवान् से निवेदन किया भगवन् ! मैंने अपने जीवन में तीन सौ साठ संग्राम किये हैं, पर उन संग्रामों में मुझे जितना श्रम नहीं हुआ उतना श्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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