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________________ ११२ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण स्थान समझ कर समस्त गीले वस्त्र उतारकर सूखने के लिए फैला दिये। राजीमती की फटकार से प्रतिबुद्ध होकर रथनेमि प्रवजित हो गये थे और उसी गुफा में ध्यान मग्न थे ।४१ आज बिजली की चमक से राजीमती को अकेली और निर्वस्त्र देखकर उसका मन पुनः विचलित हो गया। इतने में एकाएक राजीमती की दृष्टि भी उन पर पड़ी। उन्हें देखते ही वह सहम गई, और अपने अंगों का गोपन कर जमीन पर बैठ गई।४२ ____ काम-विह्वल रथनेमि ने राजीमती से कहा-हे सुरूपे ! मैं रथनेमि हूँ, तू मुझे अंगीकार कर । प्रारंभ से ही मैं तुझ में अनुरक्त हूँ। तेरे बिना मैं शरीर धारण नहीं कर सकता। अभी मेरी मनोकामना पूर्ण कर फिर अवस्था आने पर हम दोनों संयम मार्ग स्वीकार कर लेंगे। राजीमती ने देखा-रथनेमि का मनोबल टूट गया है। वे वासनाविह्वल होकर संयम से भ्रष्ट हो रहे हैं। उसने धैर्य के साथ कहाभले ही तुम रूप में वैश्रमण सदृश हो, भोग-लीला में नल-कुबेर या साक्षात् इन्द्र के समान हो तो भी मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती ।४४ अंगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्नि में जलकर मरना पसन्द करते हैं किन्तु वमन किये हए विष को पूनः पीने की इच्छा नहीं करते । हे कामी ! वमन की हुई वस्तु को खाकर तू जीवित रहना चाहता है, इससे तो मृत्यु को वरण कर लेना श्रेयस्कर है ।४५ ४० गिरि रेवययं जन्ती वासेणुल्ला उ अन्तरा। वासन्ते अंधयारंमि अन्तो लयणस्स सा ठिया ॥ - उत्तराध्ययन २२१३३ ४१. उस गुफा को आज भी राजीमती गुफा कहा जाता है । -विविध तीर्थकल्प पृ० ६ ४२. उत्तराध्ययन २२।३५ ४३. वहीं० २२।३७-३८ ४४. वहीं० २२१४१ ४५. वहीं० २२, ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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