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________________ जन्म एवं विवाह प्रसंग अरिष्टनेमि अब युवा हो चुके थे। एकदिन वे अपने हमजोली संगी-साथियों के साथ घूमते-घामते श्रीकृष्ण की आयुधशाला में गये। आयुधशाला के रक्षकों ने शस्त्रों का महत्त्व बताते हुए कहा-इन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई काम में नहीं ले सकता। किसी की शक्ति नहीं है जो इन्हें उठा सके । यह सुनते ही अरिष्टनेमि ने सूर्य के समान चमचमाते हुए सुदर्शनचक्र को अंगुली पर रखकर कुभकार के चक्र के समान फिरा दिया। सर्पराज की तरह भयंकर शाङ्ग धनुष्य को कमल नाल की तरह मोड़ दिया। कौमुदीगदा सहज रूप से उठाकर स्कंध पर रखली और पाञ्चजन्य शंख को इस प्रकार फूका कि सारी द्वारिका भय से कांप उठी। उस प्रचंड ध्वनि को सुनकर श्रीकृष्ण सोचने लगे-कौन नया चक्रवर्ती पैदा हो गया है ?४४ शत्र के भय से भयभीत श्रीकृष्ण सीधे आयुधशाला में पह चे । अरिष्टनेमि द्वारा शंख बजाने की बात जानकर वे बहुत ही चकित हुए। फिर भी शक्तिपरोक्षरण के लिए श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि से कहा व्यायामशाला में चलकर अपने बाहुबल को परीक्षा करें, क्योंकि पाञ्चजन्य शंख को फूकने की शक्ति मेरे अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं है । तुमने यह शंख फूका, यह जानकर मुझे बहुत हो प्रसन्नता हुई है । मुझे अधिक प्रसन्न करने के लिए तुम अपना भुजबल बताओ। मेरे साथ बाहयुद्ध करो। अरिष्टनेमि ने श्रीकष्ण की बात स्वीकार की।४५ ४४. तो चितइ कण्हो नणं कोइ चक्की इह समुप्पन्नो। संखाऊरणसत्तो जमिमस्सऽहिआ ममाहितो ।। -भव-भावना २६८८ पृ० १६७ ४५. (क) पाञ्चजन्यं पूरयितु महते नापरः क्षमः । भवता पूरिते त्वस्मिन् भ्रातः प्रीतोऽस्मि संप्रति ।। मां विशेषात् प्रीणयितु स्वदोः स्थामापि दर्शय । युध्यस्व बाहुयुद्ध न मयैव सह मानद ! -त्रिषष्टि० ८।६।१६-२० (ख) भव-भावना (ग) उत्तराध्ययन सुखबोधा २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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