SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 ने उसे लिपिबद्ध किया । सुकौशल, सुकुमाल और जिनदत्त के चरित भी लेखकों के लिए उपजीव्य कथानक रहे हैं । कतिपय रचनायें नारीपात्र प्रधान हैं । पादलिप्तसूरि रचित तरंगवई कहा इसी प्रकार की रचना है । यह अपने मलरूप में उपलब्ध नहीं पर नेमिचन्द्रगणि ने इसी को तरंगलोला के नाम से संक्षिप्त रूपान्तरितं कथाओं (1642 गा. ) में प्रस्तुत किया है । उद्योतनसूरि (सं. 835 ) की कुवलयमाला ( 13000 श्लोक प्रमाण ) महाराष्ट्री प्राकृत में गद्य-पद्य मय चम्पूशैली में लिखी इसी प्रकार की अनुपम कृति है जिसे हम महाकाव्य कह सकते हैं । गुणपाल मुनि (सं. 1264) का इसिदत्ताचरिय ( 1550 ग्रन्थान प्रमाण), घनश्वरसूरि (सं. 1095) का सुरसुन्दरी चरिय (4001 गा.), देवेन्द्रसूरि (सं. 1323) का सुदंस गाचरिय (4002 गा.) आदि रचनायें भी यहां उल्लेखनीय हैं । इनमें नारी में प्राप्त भाव सुन्दर विश्लेषण मिलता है । कुछ कथाग्रन्थ ऐसे भी रचे गये हैं जिनका विशेष सम्बन्ध किसी पर्व, पूजा अथवा तो से रहा है। ऐसे ग्रन्थों में श्रतपञ्चमी के माहात्म्य को प्रदर्शित करने वाला "नागपंचमी कहाओ " ग्रन्थ सर्व प्रथम उल्लेखनीय है । इसमें 10 कथायें और 2804 गाथायें हैं । इन कथाओं में भविस्सयत कहानी उत्तरकालीन प्राचार्यों को विशेष प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त एकादशीव्रत कथा ( 137 गा. ) आदि ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं । 9. लाक्षणिक साहित्य लाक्षणिक साहित्य से हमारा तात्पर्य है - व्याकरण, कोश, छन्द, ज्योतिष-निमित्त, शिल्पादि विद्यायें । इन सभी विद्याओं पर प्राकृत रचनायें मिलती हैं | अणुयोगदारसुत आदि प्राकृत आगम साहित्य में व्याकरण के कुछ सिद्धान्त परिलक्षित होते हैं पर श्राश्चर्य की बात है कि अभी तक प्राकृत भाषा में लिखा कोई भी प्राकृत व्याकरण उपलब्ध नहीं हुआ । समन्तभद्र, वीरसेन और देवेन्द्रसूरि के प्राकृत व्याकरणों का उल्लेख अवश्य मिलता है। पर अभी तक वे प्रकाश में नहीं आ पाये । संभव है, वे ग्रन्थ प्राकृत में लिखे गये हों । संस्कृत भाषा में लिखे गये प्राकृत व्याकरणों में चण्ड का स्ववृत्तिसहित प्राकृत व्याकरण ( 99 अथवा 103 सूत्र), हेमचन्द्रसूरि का सिद्धहमचन्द्र शब्दानुशासन (1119 सूत्र ), त्रिविक्रम ( 13वीं शती) का प्राकृत शब्दानुशासन ( 1036 सूत्र ) आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं । इन ग्रन्थों में प्राकृत और अपभ्रंश के व्याकरण विषयक नियमोपनियमो का सुन्दर वर्णन मिलता हूँ । कोश की भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोश की भी आवश्यकता होती है । दृष्टि से नियुक्तियों का विशेष महत्व है । उसमें एक-एक शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रस्तुत किया गया है । प्राकृतकोशकला के उद्भव और विकास की दृष्टि से उनका समझना आवश्यक है । हेमचन्द्र की देशी नाममाला (783 गा. ) में 397 देशज शब्दों का संकलन किया गया है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से विशेष उपयोगी है। इसके अतिरिक्त धनपाल (सं. 1029) का पाइय लच्छीनाममाला ( 279 गा), विजयराजेन्द्रसूरि (सं. 1960 ) का अभिधान राजेन्द्रकोश (चार लाख श्लोक प्रमाण) और हरगोविन्ददास विक्रमचन्द सेठ का पाइय सद्दमहण्णवो (प्राकृत हिन्दी) कोश भी यहां उल्लेखनीय है । संवेदनशीलता जाग्रत करने कराने के लिए छन्द का प्रयोग हुआ है । नंदिताडढ ( लगभग 10वीं शती) का गाहालक्खण ( 96 गा.) और रत्नशेखरसूरि ( 15 वीं शती) का छन्द: कोश (74 गा.) उल्लेखनीय प्राकृत छन्द गन्थ है । गणित क क्षेत्र में महावीराचार्य का गणितसार संग्रह और भास्कराचार्य की लीलावती प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इन दोनों का आधार लेकर इनमें श्रालेखित विषयों का ठक्कर फेरु ( 13वीं
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy