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________________ 390 अपने धर्म स्थानों की यात्राओं पर प्रायः जाया करते थे। उनके साथ जैन साधु भी होते थे। प्राचार्य सोमसुन्दरसूरि, हीरविजयसूरि आदि ने कई उल्लेखनीय संघ यात्रायें कराई थीं। मूर्तिलेख राजस्थान से श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की असंख्य मूर्तियां लेखयुक्त मिलती हैं। ये लेख प्रायः तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण मिलते हैं किन्तु, कहीं- कहीं प्राचार्यों की प्रतिमाओं, जीवन्तस्वामी की प्रतिमानों, जैन सरस्वती, अम्बिकादेवी, सच्चिका देवी प्रादि की प्रतिमाओं पर भी लेख मिलते हैं। 10वीं शताब्दी के पूर्व की लेख यक्त प्रतिमायें अत्यल्प हैं। 10वीं शताब्दी से बड़ी संख्या में मूर्तियां मिलती हैं। औसियां के मंदिर में वि. सं. 1040 में प्रतिष्ठापित प्रतिमा विराजमान है। अमरसर से खुदाई में प्रतिमाओं में संवत् 1063, 1104, 1112, 1129, 1136 और 1160 की प्रतिमायें मिली हैं। इसी प्रकार बघेरा से खुदाई में प्राप्त प्रतिमायें भी 11वीं और 12वीं शताब्दी की है। रूपनगढ़ से प्राप्त प्रतिमायें भी इसी काल की हैं। सांचोर में विशालकाय पीतलमय मति वि. सं. 1134 में प्रतिष्ठित की गई थी जो वि. सं. 1562 में प्राब में लाई गई थी। वि.सं. 1102 में पाबू में सलावटों ने अपनी अोर से जिन प्रतिमा निर्मित कराके प्रतिष्ठित कराई थी। इन मतियों की प्रतिष्ठायें विशेष प्राचार्यों द्वारा कराई जाती थीं। दिगम्बरों द्वारा मति प्रतिष्ठानों में मोजमावाद में वि.सं.1664 में, चांद खेडी खानपुर में वि.सं. 1746 में, बांसखों में वि.स. 1783 में, सवाई माधोपुर में वि.सं. 1826 में हुई प्रतिष्ठानों के समय बड़ी संख्या में मूर्तियां और यंत्र प्रतिष्ठापित हुये थे। वि. सं. 1508 में नाडोल में महाराणा कुंभा के समय जब प्रतिष्ठा हई थी तब भी कई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई गई थी, जो बाद में कुंभलगढ़, देवकुल पाटन आदि स्थानों को भेजी गई थी। इन मूर्ति लेखों से कई रोचक वृत्तान्त भी मिलते हैं। जैसे वि. सं. 1483 के जीरापल्ली के लेखों से ज्ञात होता है कि इस वर्ष वहां 4 गच्छों के बडे-बडे प्राचार्यों ने एक साथ चौमासा किया था। वि. सं. 1592 के बीकानेर के शिलालेख से वहां कामरां के आक्रमण की सूचना दी गई है जो महत्वपूर्ण है। कई बार जैन प्रतिमायें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई गई थीं। वि. सं. 1408 डस्थला में प्रतिष्ठित प्रतिमायें प्राब ले जायी गई जो आजकल विमल वसही में मुख्य मन्दिर के बाहर लग रही है। इसी प्रकार वि. सं. 1518 में कुम्भलगढ़ में महाराणा कुम्भा के राज्य में प्रतिष्ठित प्रतिमा वि.सं. 1566 में अचलगढ ले पाई गई थीं। मंत्री कर्मचन्द्र अकबर से स्वीकृति लेकर सिरोही और आबू क्षेत्र की कई प्रतिमायें देहली से बीकानेर ले गया था। तीर्थ करों की प्रतिमानों के अतिरिक्त जीवन्त स्वामी की पीतलमयी प्रतिमायें बहुत ही प्रकाश में आई हैं। 10वीं शताब्दी की लेखयुक्त एक सुन्दर पत्थर की प्रतिमां सरदार म्युजियम जोधपुर में भी है। प्राचार्यों की प्रतिमायें 10 वीं शताब्दी से ही मिलनी शुरू हो जाती हैं। लेखयुक्त प्रतिमायें सांडे राव, देवकुल पाटक आदि कई स्थानों पर उपलब्ध हैं। प्राचार्यों की प्रतिमानों के स्थान पर चारण पादुकायें भी बनाई जाती थीं। जयपुर से 2 मील दूर पुराने घाट पर दिगम्बर प्राचार्यों से सम्बन्धित वि.सं. 1217 का शिलालेख हाल ही में मैने प्रकाशित कराया है। इसमें भी लेख के एक और चरण पादुका बनी है। इस लेख से ग्रामर और जयपुर क्षेत्र में दिगम्बर जैनों के 10 वीं शताब्दी में अस्तित्व होने की सूचना मिलती है। इन तियों के अतिरिक्त कई पट्ट, यन्त्र आदि भी लेखयुक्त मिलते हैं। अन्य देवियों के साथ सरस्वती देवी की उपासना जैनियों में विशेष रही प्रतीत होती है । चित्र कला में इसका अंकन बहुत ही अधिक है। मूर्तियों में पल्लु की जैन सरस्वती प्रतिमायें बड़ी प्रसिद्ध हैं। वि. सं. 1202 को लेखयुक्त सरस्वती प्रतिमा नरेणा के जंन
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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