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________________ 318 परीक्षा पास करने के बाद ही ये कविताएं करने लग गये थे और अन्त तक अपना नाम आनन्दोपाध्याय ही लिखते रहे। अनेक पत्रों में आपकी कविताएं छपी हैं। विपदाओं से सदा कान्त हो, लगता जीयन भार भयो। कभी रहसि मैं रो लेता हूं, मन भावन को मार वियो । नाथ। उबारोद्रततर मझको, देख रहा सूख का सपना । अन्तस्तल में शान्ति प्राप्तकर आखिर विश्व समझे अपना । 7. पाश्र्वदास निगोत्या 20वीं शती के पूर्वार्द्ध के इस कवि ने अनेक पद लिखे हैं। जो हाल ही में पार्श्वदास पदावलि के नाम से प्रकाशित हुए हैं। इसमें विभिन्न रागों में 423 पद हैं हिन्दी के भी और ढूंढारी मन प्राणिधि की वा सगुण तुम दृष्टि हो, हो दयित आंसू बहाते तुरन्त ही, दूसरों के दर्द दुख को देखकर , पर रहा तुमसे जाता नहीं, बोर अत्याचार को अवलोक कर । 8. श्री अनलाल सेढी जन्म जयपुर में 9 सितम्बर 1888 । स्वर्गवास 22 सितम्बर 1941। शिक्षा बी.ए. 1902 में। होश संभालने के साथ ही देश प्रेम के दीवाने हो गये। राजनैतिक अपराध में जेल के सींकचों में बहुत समय गुजरा। ये पक्के समाज सुधारक, अद्भुत विद्वान तथा प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। राजस्थान में कांग्रेस के चोटी के नेता बने । उन्होंने वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। ये पुज्य गांधी जी के सहयोगी रहे। हिन्दी के अनन्य भक्त थे। आपने महेन्द्रकुमार नाटक, मदन पराजय नाटक और पारसयज्ञ पूजा लिखी तथा इनके अतिरिक्त और भी कितनी ही रचनाएं की दुर्दशा पर दो अांसू बहाते हुए कवि ने अपने निम्न विचार व्यक्त किये :-- पड़े हैं घोर दुःखों में सभी क्या रंक और राजा, हुई भारत की यह हालत नहीं है आब अरु दाना। धर्म के नाम पर झगड़े यहां पर खूब होते हैं, बढाके फट आपस में दु:खों का बीज बोते हैं। निरुद्यमी आलसी हो, द्रव्य अपने आप खोते हैं, हुना है भोर उन्नति का यह भारतवासी सोते हैं। और फिर देशवासियों में जोश भरते हुए कवि प्रेरणा देता है : संभालो अपने घर को अब जगादो बूढ़े भारत को, यह गरु है सर्व देशों का, उठो प्यारो उठो प्यारो। जहां के अन्न पानी से बनी यह देह हमारी है, करो सब उसपै न्यौछावर, उठो प्यारो उठो प्यारो। 9. पं. चनसुख दास न्यायतीर्थ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य के समान पंडित जी हिन्दी के भी उच्च कोटि के विद्वान थे। पंडित जी कवि हदय थे। दार्शनिक, भक्तिपरक व आध्यात्मिक कवितायें लिखने में भापकी
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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