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________________ बनारस में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की । लगभग 45 वर्षों से इनका कार्य क्षेत्र जयपुर ही हैं । पंडित जी वास्तुशास्त्र, मूर्तिशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र के अद्वितीय विद्वान् हैं । इनके द्वारा अनुदित निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। -- रूपमण्डन देवतामूर्ति प्रकरण त्रैलोक्य प्रकाश, 294 वास्तुसार प्रकरण प्रसादमण्डन बेडाजातक पंडितजी द्वारा कई अनुदित ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित पड़े हुए हैं, यथा- आदि । मेघ महोदय वर्ष प्रबोध ज्योतिषसार नमस्कार महामन्त्र कल्प ऋषिमण्डल स्तोत्र विधि विधान सह घण्टाकर्ण कल्प केसरियाजी का इतिहास महाराणा प्रताप, आदि । ही कलश भुवनदीपक 70. चन्दनमल नागौरी I नागौरी जी छोटी सादडी (मेवाड़) के निवासी श्री मोतीराम जी के पुत्र हैं । छोटी सादडी में ही रहते हैं । इनकी अभी उम्र 91 वर्ष की है । ये प्रतिष्ठा विधि और मन्त्र साहित्य विशिष्ट विद्वान् हैं । इन्होंने अभी तक विभिन्न स्थानों पर 135 मन्दिरों की प्रतिष्ठायें करवाई हैं । इनका निजी पुस्तकालय भी है जिसमें 5000 से अधिक पुस्तकें संग्रहीत हैं। इनके द्वारा लिखित 75 के लगभग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिसमें से कुछ पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं : : नमस्कार महात्म्य ह्रींकार कल्प यन्त्र मन्त्र संग्रह जाति गंगा 71. अगरचन्द्र नाहटा श्री शंकरदानजी नाहटा के यहां वि. सं. 1967 में बीकानेर में इनका जन्म हुआ । पाठशाला की शिक्षा ये पांचवीं कक्षा तक ही प्राप्त कर सके। प्राचार्य श्री जिन कृपाचन्द्रसूरिजी की प्रेरणा से सं. 1984 से इनकी और इनके भतीजे श्री भंवरलाल नाहटा की साहित्य की ओर रुचि जागृत हुई । सं. 1984 से लेकर आज तक निरन्तर अध्ययनशीलता और कर्मशीलता के कारण इन नाहटा - बन्धुत्रों (चाचा-भतीजों ने ) सामान्य शिक्षा प्राप्त होते हुए भी साहित्य जगत में जो कार्य किया है वह वस्तुतः अद्वितीय ही कहा जा सकता है । इन दोनों के प्रयत्नों से संस्थापित अभय जैन ग्रन्थालय में लगभग 60 हजार हस्तलिखित ग्रन्थों और 15 हजार के लगभग मुद्रित पुस्तकों का संग्रह, कलाभवन में मूर्तियां, सिक्के, चित्र, चित्रपट्ट, सचित्र प्रतियां, आदि हजारों की संख्या में संग्रहीत हैं । यह ग्रन्थालय शोध छात्रों के लिये शोध-केन्द्र बना हुआ है । दृढ अध्यवसाय और अजस्र स्वाध्याय परायणता के कारण श्री अगरचन्द जी आज जैन साहित्य के ही नहीं, अपितु राजस्थानी भाषा के भी श्रेष्ठ विद्वान् माने जाते हैं। यही नहीं, ग्रन्थों, ग्रन्थकारों, संग्रहालयों के सम्बन्ध में तो इन्हें साहित्य का कोष भी कह सकते हैं । इनके सहयोग से पचासों छात्र शोध-प्रबन्ध पू र्ण कर पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। पचासों
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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