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________________ 241 तेरापंथ धर्मसंघ में जयाचार्य उद्भट विद्वान, प्रतिभा सम्पन्न कवि और महान गद्य लेखक के रूप में विख्यात हैं। आपने गद्य व पद्य की छोटी-बड़ी 128 राजस्थानी रचनाएं सजिल की। प्राकृत साहित्य का राजस्थानी में अनुवाद भी किया। अनेक नई विधाओं का राजस्थानी साहित्य में प्रचलन किया। भापका विविध रूपात्मक एवं विषयात्मक समस्त साहित्य लगभय साढे तीन लाख अनष्टप छन्द परिमाण में उपलब्ध होता है। गद्य रूप में प्राप्त यापकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:-- प्रम विध्वंसन: इसमें तेरापंथ एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय के मतभेदों एवं विवादास्पद विषयों को चवदह अधिकारों में विभक्त कर आगमों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया गया है। वि. सं. 1980 में मंगामहर (बीकानेर) से इस ग्रन्थ का 462 पृष्ठों में प्रकाशन हो चुका है। संदेह विसोसधिः सत्कालीन विभिन्न प्रकार के सन्देहों का स्पष्टीकरण कर उन्हें दूर करने का इस ग्रन्थ में प्रयास किया गया है। यह लगभग 91 पत्रों की बड़ी प्रति है। जिसमें चवदह रत्नों में समस्त विषयवस्तु समाहित है। प्रारम्भ में संस्कृत का श्लोक है। उसके बाद रचना का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है : "पूरव अनंतकाल संसार समुंदर नै विर्ष भ्रमण करता जीवनै समकत्व रतन नी प्राप्ति थई नथी भने किण ही समय दरसण मोहनीय करम नां क्षयोपसम थी समकत्व हाथ पावै तो पिण असुभ करम न उदय पाषंडी भादि अनेक जिन-मतना उत्थापक छ त्यांरी कसंगति करवा थी नाना प्रकार नां संदेह प्रात्मा ने विर्ष उतपन हवे अन ते संदेह उतपन्न होवा थी जे समकत्व नां प्राचार निस्संकि-" जिनाग्या मुख मण्डन: साधनों के प्राचार व्यवहार संबंधी कुछ अकल्पनीय लगने वाले प्रसंगों को प्रागमों के माधार पर इसमें सैद्धान्तिक दृष्टि से समर्थित किया गया है एवं सर्वज्ञों द्वारा विहित बताया है। रचना 17 पत्रों की है। रचना संवत् 1895 ज्येष्ठ कृष्णा सोमवती अमावस्या है। प्रारम्भ में दो दोहे हैं। कुमति विहडनः-- इसमें साधुमों के प्राचार-विचार विषयक तत्कालीन समाज द्वारा उठाये गये कुतकों का भागमिक प्रमाणों के माधार पर स्पष्टीकरण किया गया है। कुल 14 पत्रों की रचना है। प्रारम्भ में संस्कृत श्लोक है। परथूनी बोल: 08 बोल हैं। मन्तिम बोल को देखने से इंगित होता है कि श्री जयाचार्य इसे भोर मागे लिखना चाहते थे किन्तु किन्हीं कारणों से ऐसा न हो सका। इसमें आगमों के भिभिन्न कठिन तथा विवादास्पद विषयों का स्पष्टीकरण एवं संग्रहबोज रूप में है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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