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________________ 178 (1640), प्रार्द्रकुमार धमाल (1644), नेमिफाग आदि कितनी ही रचनायें उपलब्ध होती कुशललाभ : कुशललाभ खरतरगच्छीय अभयधर्म के शिष्य थे। ढोला-मारू और माघवानल कामकन्दला चौपई पापकी लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध रचनायें हैं। जैसलमेर के रावल मालदेव के कवर हरराज के कौतुहल के लिये इन दोनों लोककथाओं संबंधी राजस्थानी काव्यों की रचना संवत 1816 एवं 1617 में की थी। इनके अतिरिक्त तेजसार रास, अगडदत्त रास जैसी और भी रचनायें उपलब्ध होती हैं। कविवर हीरकलश :-- बीकानेर और नागौर प्रदेश में समान रूप से बिराजने वाले इस कवि ने राजस्थानी भाषा में 'हीरकलश जोइस हीर' नामक महत्वपूर्ण रचना संवत् 1657 में समाप्त की थी। प्रस्तुत कृति भाषा की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। कुमति विध्वसन (सं. 1617), सम्यक्त्वकौमुदी रास, अठारह नाता, आराधना चौपई, मोती कपासिया सम्वाद, रतनचूड चौपई, हीयाली प्रादि और भी कितनी ही इनकी रचनायें उपलब्ध होती हैं। संवत् 1615 से लेकर संवत् 1657 तक आपकी करीब 40 रचनायें प्राप्त हुई हैं। महोपाध्याय समयसुन्दर : राजस्थानी साहित्य के सबसे बड़े गीतकार एवं कवि के रूप में महोपाध्याय समयसुन्दर का नाम उल्लेखनीय है। संवत् 1641 से 1708 तक 60 वर्षों में आपका साहित्य-रचना का दीर्घकाल है। 'राजा नो ददते सौख्यम' इन आठ अक्षरों के वाक्य के आपने 10 लाख से भी अधिक अर्थ करके सम्राट अकबर और समस्त सभा को आश्चर्य चकित कर दिया था। 'सीताराम चौपई' नामक राजस्थानी जैन रामायण की एक ढाल आपने सांचौर में बनायी थी। राजस्थानी गद्य-पद्य में आपकी सैकडों रचनायें उपलब्ध होती हैं, जिनमें 563 रचनायें 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्बप्रद्युम्न चौपई, मृगावती रास (1668), प्रियमेलक रास (1672), शवजय रास, स्थूलिभद्र रास आदि रचनाओं के नाम उल्लेखनीय हैं। आपका शिष्य परिवार भी विशाल था और जिसकी परम्परा अभी तक उपलब्ध है। उक्त कवियों के अतिरिक्त विमलकीर्ति, नयरंग, जयनिधान, वाचक गणरत्न, चारित्नसिंह, धर्मरत्न, धर्मप्रमोद, कल्याणदेव, वीरविजय, हेमरत्नसूरि, सारंग, उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय गुणविनय, उपाध्याय लब्धिकल्लोल, महोपाध्याय सहजकीर्ति, श्रीसार, विनयमेरु, वाचक सूरचन्द्र आदि कितने ही राजस्थानी कवि हये हैं जिन्होंने राजस्थानी भाषा को अपनी साहित्य सर्जना का माध्यम बना कर उसके प्रचार-प्रसार में योग दिया। सम्राट अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के अनेक शिष्य एवं प्रशिष्य थे जो राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। ऐसे विद्वानों में समयप्रमोद, मुनिप्रभ, समयराज उपाध्याय, हर्षवल्लभ, सुमतिकल्लोल, धर्मकीर्ति, श्रीसुन्दर, ज्ञानसुन्दर, जीवराज, जिनसिंहसूरि, जिनराजसूरि प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी शताब्दी में होने वाले भुवनकीर्ति की संवत् 1667 से 1706 तक रचनायें मिलती हैं जिनमें भरतबाहुबलि चौपई, गजसुकुमाल चौपई, अंजनासुन्दरी रास के नाम उल्लेखनीय हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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