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________________ 139 मुनि रामसिंह ने रहस्यवाद का बहुत ही सुन्दर अंकन किया है । भारतीय-परम्परा में जिस रहस्यवाद के हमें दर्शन होते हैं, वह रहस्यवाद रामसिंह के निम्न दोहे में स्पष्ट रूप से विद्यमान है :-- हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु । एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहिं अंगु ॥ (पाहुड.-10) अर्थात्-मैं सगुण हं और प्रिय निर्गुण, निर्लक्षण और नि:संग है । एक ही अंग रूपी अंक अर्थात कोठे में बसने पर भी अंग से अंग नहीं मिल पाया । तुलनात्मक दष्टि से अध्ययन करने पर अवगत होता है कि अपघ्रश की इस विधा पर योग एवं तान्त्रिक पद्धति का भी यत्किञ्चित प्रभाव पड़ा है । इसमें चित्-अचित्, शिव-शक्ति, सगुण-निर्गुण, अक्षर, रवि-शशि आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग मिलता है, जो जैन परम्परा के शब्द नहीं हैं । शिव-शक्ति के सम्बन्ध में कहा गया है : सिव विण सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्ति-विहीणु । दोहिमि जाणहि सयलु जगु बुज्झइ मोह विलीणु ॥ (पाहुड.-55) अर्थात् शिव के बिना शक्ति का व्यापार नहीं होता और न शक्ति-विहीन शिव का। इन दोनों को जान लेने से सकल जगत् मोह में विलीन समझ में आने लगता है । तीसरी महत्वपूर्ण विधा बौद्ध-दोहा एवं चर्या-पद सम्बन्धी है, जिसे सन्ध्याभाषा की संज्ञा भी प्राप्त है। सिद्धों ने परमानन्द की स्थिति, उस मार्ग की साधना एवं योग-तत्व का वर्णन प्रतीकात्मक भाषा में किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने तात्कालिक सामाजिक कुरीतियों तथा रूढियों की निन्दा के साथ ब्राह्मण धर्म के पाखण्डों का भण्डाफोड किया है। यद्यपि इन दोहों में आध्यात्मिक तत्व और दार्शनिक परम्परायें निहित हैं, पर इनमें ध्वसांत्मक-तत्व प्रधान रूप से सजग हैं, जबकि जैन आध्यात्मिक अपभ्रश दोहों में तीव्र ध्वंसात्मक रूप न होकर आध्यात्मिक तत्व का निरूपण ही उपलब्ध होता है। मुनि रामसिंह ने भी यद्यपि आडम्बर-पूर्ण कुरीतियों का निराकरण किया है, पर वे अपनी वर्णन-प्रक्रिया में उग्र नहीं हो पाए हैं। यथा: मुंडिय मंडिय मुंडिया सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया। चित्तहं मुंडणु जि कियउ संसारहं खंडणु ति कियउ ॥(पाहुड-135) अर्थात हे मुंड मुंडाने वालों में श्रेष्ठ मुडी, तूने सिर तो मुडाया पर चित्त को न मोडा। जिसने चित्त का मुण्डन कर डाला उसने संसार का खण्डन कर डाला। जैन कवि कण्ह या सरह की भांति अपने विरोधी को जोर की डांट-फटकार नहीं बतलाते और तान्त्रिक पद्धति भी उस रूप में समाविष्ट नहीं है, जिस रूप में बौद्ध-दोहों में। यतः बौद्धतान्त्रिकों ने स्त्री-संग और मदिरा को साधना का एक आवश्यक अंग माना है। इन तान्त्रिकों की कृपा से ही शैव और शाक्त साधना में पंच-मकार को स्थान प्राप्त हुआ है। वज्रयान शाखा के कवियों ने अपनी रहस्यात्मक मान्यताओं को स्त्री-संग संबंधी प्रतीकों से व्यक्त किया है। यही कारण है कि बाला, रण्डा, डोम्बी, चाण्डाली, रजकी आदि के साथ भोग करना इन्होंने विहित समझा। यद्यपि यह सत्य है कि योग-स्थिति का वर्णन करने के हेतु वे अश्लील प्रतीक चनते थे पर उनका अभिप्रेत अर्थ भिन्न ही होता था। बाला, रण्डा के साथ सम्भोग करने का अर्थ है कि कुण्डलिनी को सुषुम्ना के मार्ग से ब्रह्म रन्ध्र में ले जाना। अतएव स्पष्ट है कि बौद्ध-दोहों के द्वारा अपभ्रंश-साहित्य में प्रतीकात्मक-रहस्यवाद की एक परम्परा प्रारम्भ हुई। समझा। यद्यपि यह सवभिन्न ही होता था। बाला, अतएव स्पष्ट है कि
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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