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________________ 133 मुख्यतया प्राकृत का आविर्भाव य विकास हुआ है। छान्दस् के समानान्तर प्रवाहित होने वाले जनभाषा की प्रवृत्तियां पृथक रूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इनका आभास छान्दस से मिल जाता है। प्राच्या, जो कि 'देश्य' या 'प्राकृत' का मूल है, उसका वास्तविक रूप क्या था, इसकी निश्चित जानकारी हमें ज्ञात नहीं है। महावीर एवं बद्ध के उपदेशों की भाषा भी हमें आज मूलरूप में प्राप्त नहीं है। जो रूप आज निश्चित रूप से उपलब्ध है, वह प्रियदर्शी अशोक के भभिलेखों की भाषा का ही है, किन्तु इन अभिलेखों की भाषा में भी एकरूपता नहीं है। उनमें विभिन्न वैभाषिक प्रवत्तियां सन्निहित हैं। इन अभिलेखों का प्रथम रूप पूर्व की स्थानीय बोली है, ओ कि मगध की राजधानी पाटलीपुत्र तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश में बोली जाती थी और जिसको साम्राज्य की अन्तन्तिीय भाषा कहा जा सकता है। प्राच्या का दूसरा रूप, उत्तर पश्चिम की स्थानीय बोली है। इसका अत्यन्त प्राचीन स्वरूप अभिलेखों में सुरक्षित है। इस प्रकार इसी भाषा को साहित्यिक प्राकृत का मूलरूप कहा जा सकता है । उसका तीसरा रूप पश्चिम की स्थानीय बोली है, जिसका रूप हिन्दुकुश पर्वत के आसपास एवं विन्ध्याचल के समीपवर्ती प्रदेशों में माना गया है। विद्वानों का अनुमान है कि यह पैशाची भाषा रही होगी या उसीसे पैशाची भाषा का विकास हआ होगा। प्रियदर्शी अशोक के अभिलेखों के उक्त माषाक्षेत्रों में से पूर्वीय भाषा का सम्बन्ध मागधी एवं अर्धमागधी के साथ है। यद्यपि उपलब्ध अर्धमागधी साहित्य की भाषा में उक्त समस्त प्रवृत्तियों का अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता। उत्तर पश्चिम की बोली का सम्बन्ध शौरसैनी के साथ है, जिसका विकसित रूप सम्राट् खारवेल के शिलालेख, दि. जैनागमों एव संस्कृत नाटकों में उपलब्ध होता है। पश्चिमी बोली का सम्बन्ध पैशाची के साथ है, जिसका रूप गणाढ्य की 'वड्ढकहा' में सुरक्षित था । भाषाविदों ने प्रथम प्राकृत को 'आर्य' एवं 'शिलालेखीय' इन दो भागों में विभक्त किया है, जिनमें से आर्ष प्राकृत जैनागमों एव बौद्धागमों में उपलब्ध है और शिलालेखीय प्राकृत ब्राह्मी और खरोष्ठी-लिपि में उपलब्ध हए शिलालेखों में । द्वितीय प्राकृत में वैयाकरणों द्वारा विवेचित महाराष्ट्री, शौरसैनी, मागधी और पैशाची भाषाओं का साहित्य प्रस्तुत होता है। महाराष्ट्री द्वितीय प्राकृत की साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा मानी गई है2। महाकवि दण्डी ने महाराष्ट्रीय प्राकृत की पर्याप्त प्रशंसा की है। वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' से भी इस बात का समर्थन होता है कि महाराष्ट्री प्राकृत पर्याप्त समृद्ध रूप में वर्तमान थी। यह भाषा-शैली उस समय आविन्ध्य-हिमालय भारत की राष्ट्रभाषा मानी जा सकती है, यद्यपि कुछ विचारक मनीषी महाराष्ट्री और शौरसैनी को दो पृथक पृथक् भाषाएं नहीं मानते, बल्कि एक ही भाषा की दो शैलियां मानते हैं। उनका मत है कि गद्य-शैली का नाम शौरसैनी और पद्यशैली का नाम महाराष्ट्री है। मलतः यह प्राकृत सामान्य प्राकृत ही है और शैली-भेद से ही इसके दो भेद किए जा सकते हैं। 1. दे. आष्टाध्यायी के सूत्र-विभाषा छंदसि 1-2-26 बहुलं छन्दसि 2-3-62 आदि 2. इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत (वॉलर) पृष्ठ-2-5/ 3, काव्यादर्श 1134, 4. कर्पूरमंजुरी (कलकत्ता वि. वि. प्रकाशन) भूमिका पू. 76
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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