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________________ 97 जिन्होंने अमृतचन्द्र की प्रेरणा से अपूर्ण एवं खण्डित प्रद्युम्नचरित का उद्धार किया था। प्रथम्नचरित की प्रशस्ति में अमतचन्द्र के लिये लिखा है कि अमतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर तथा पर नियम एवं शील के रत्नाकर थे। अपने तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने अन्य दर्शनों को झकोलित कर दिया था। जो उनमें व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे तथा जिनके ब्रह्मचर्य के आगे कामदेव मी हिल गया था । 4. रामसेनः-रामसेन नामके कितने ही विद्वान् हो चुके हैं लेकिन प्रस्तुत रामसेन काष्टासंघ, नन्दातटगच्छ और विद्यागण के आचार्य थे। आचार्य सोमकोति द्वारा रचित गुर्षावलि में रामसेन को नरसिंहपुरा जाति का संस्थापक माना है। बागड प्रदेश से रामसेन का अधिक सम्बन्ध था और राजस्थान इनकी विहार भूमि थी। रामसेन की परम्परा में कितने ही भट्टारक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने अपनी प्रशस्तियों में रामसेन का सादर स्मरण किया है। रामसेन को विद्वानों ने 10 वीं शताब्दी का स्वीकार किया है। इनकी एक मात्र कृति तत्वानुशासन संस्कृत की महत्वपूर्ण रचना है। इसमें 258 पद्य हैं जिनमें अध्यात्म विषय का बहुत ही सुन्दर प्रतिपादन हआ है।" एक विद्वान के शब्दों में रामसेन ने अध्यात्म जैसे नीरस, कठोर और दुर्बोध विषय को उतना सरल एवं सुबोध बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नहीं सकता। इस ग्रन्थ में ध्यान का विशद विवेचन हुआ है। कर्मबन्ध की निवृत्ति के लिये ध्यान की आवश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करें क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय से परमात्मा का प्रकाश होता है। के शिष्य आरगणाकरसनमारक शिष्य या लाऊ बागडसव का राजस्थान सपिराप सन्याप 5. आचार्य महासेनः--आचार्य महासेन लाड बागड संघ के पूर्णचन्द्र आचार्य जयसेन नसरि के शिष्य थे। लाड बागड संघ का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध था। इसलिये आचार्य महासेन ने राजस्थान में विशेष रूप से विहार किया और धर्म साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार किया। प्रहाम्न चरित की प्रशस्ति के अनुसार ये सिद्धान्तश, बादी, वाग्मी और कवि थे तथा शब्दरूपी ब्रह्म के विचित्र घाम थे। वे यशस्वियों द्वारा मान्य, सज्जनों में अग्रणी एवं पाप रहित थे और परमार वंशी राजा मुन्ज के द्वारा पूजित थे। आचार्य महासेन की एक मात्र कृति प्रद्युम्नचरित उपलब्ध है। यह एक महाकाव्य है। इसमें 14 सर्ग हैं जिनमें श्रीकृष्ण जी के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन चरित निबद्ध है। काव्य का कथाभाग बडा ही सुन्दर रस और अलंकारों से अलंकृत है। कवि ने इसमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है किन्त राजा मन्ज का समय 10 वीं शताब्दी का है अतः यही समय आचापं महासन का होना चाहिए । 6. कवि डड्ढा:--ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे।.चित्तोड इनका निवास स्थान था। इनके पिता का नाम श्रीपाल एवं ये जाति से पोरवाड थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति म दिया गया है श्रीचित्रकूट वास्तव्य प्राग्वार वणिजा कृते । श्रीपालसुत-डड्ढेण स्फुटः प्रकृतिसंग्रहः ॥ इनकी एक मात्र कृति संस्कृत पंचसंग्रह है जो प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाओं का अनवाद है। 'अमितिगति आचार्य ने भी संस्कृत में पंचसंग्रह की रचना की थी लेकिन दोनों के अध्ययम से जीत 1. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग 2 पृष्ठ 357 2. तच्छिष्यो विदिता खिलोरुसमयो वादी च वाग्मी कधिः शब्दब्रह्मविचित्रवाम यशसा मान्यां सतामग्रणी। बासी श्रीमहसेनसूरिरनघ श्री सुन्जराजाचित : सीमान्दान-योधप्रत्त तपसां, मच्याब्जनी बांधव: :
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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