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________________ हाकाव्य (गद्य-पद्य) जैन मनोषियों न संस्कृत भाषा में काव्य रचना के द्वारा अपनी प्रतिभा का पर्याप्त चमत्कार प्रस्तत किया है। काव्य के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग करने वाले जैन विद्वानों में आचार्य समन्तभद्र का नाम अग्रणी माना जाता है। उन्होंने अनेक स्तोत्र काव्यों की रचना की। यह क्रम विकसित होता हुआ क्रमशः सातवी शताब्दी तक चरित काव्य और महाकाव्य तक पहुंच गया है। संस्कृत भाषा के जैन महाकाव्यों में वरांगचरित, चन्द्रप्रभचरित, वर्धमानचरित, पाश्वनाथचरित, प्रद्युम्नचरित, शान्तिनाथचरित, धर्मशर्माभ्युदय, नेमि निर्वाण काव्य, पद्मानन्द महाकाव्य, भरतबाहुबलि महाकाव्य, जैन कुमार संभव, यशोधर चरित, पांडवचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित आदि की गणना प्रमुख रूप से की जा सकती है। माहकाव्यों की यह परम्परा बीसवीं शताब्दी में और अधिक वृद्धिगत हुई। तेरापंथ धम संघ में इस दिशा में एक नया उन्मेष आया और विगत दो दशकों में जो काव्य रचना हई उसमें तीन महाकाव्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं: (1) अभिनिष्क्रमणम्। (2) श्री तुलसी महाकाव्यम्, (3) श्री भिक्षु महाकाव्यम् 3. 1. अभिनिष्क्रमणम्:-चन्दन मुनि द्वारा रचित आचार्य भिक्षु के जीवन का एक महत्व पूर्ण घटना वृत्त है। संस्कृत महाकाव्य के कुछ स्वतन्त्र मापदंड हैं। प्रस्तुत कृति में उनका सम्यग निर्वहन हुआ है। इसकी शलो गद्यात्मक है, रचना में प्रौढता है और शब्दों में ओज। यत्र-तत्र वाक्यों का विस्तृत, सालंकार तथा उक्ति वोचत्रय पूर्ण कलवर संस्कृत के प्राचीन गद्य-पथ लेखकों की कृतियों का स्मरण करा देता ह। विद्वानों का दाष्ट में प्रस्तुत काव्य में भाव प्रवणता जहां चरम उत्कर्ष पर पहुंची है, वहां विचार गरिमा मी सागर की अतल गहराइयों से जा मिली है। इसमें तत्व, प्रकृति, ऋतु, मनोभाव आदि का मार्मिक विवेचन हुआ है। स्थान-स्थान पर लोक व्यवहार क उपयोगी तथ्यों का भी विश्लेषण हुआ है। एक स्थान पर काव्यकार न लिखा हैहन्त! अनवसरे अमृतमपि विषायते, विषमप्यवसर-प्रयुक्त-ममतमतिरिच्यते। एकमेव वस्त महद्धस्तोपढौकितं सन्महय॑त्वमालिगति, बहुमूल्यरत्नमाप कोलटनेयकरकोडस्थं शतमूल्यमपि । अवसर प्रयुक्तभेकमपि सूक्तं स्वात्या शुक्तिगत पानायपुषदिव मौक्तिकतामाराधयद सेवते सार्वभौमानां मंजुलमौलिकुमुटान । इस काव्य के सत्रह उवास। इसकी रचना तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर, वि. सं. 2017 में कांकरोली (राजस्थान) म हुई। इसका हिन्दी भाषा में आवाद मनि मोहन लाल जी "शादल" ने किया तानमा पेनाससानिया विश्वविद्यालय (अमरोका) के संस्कृत प्राध्यापक डा. लूडो रोचर ने लिखी है। 2. श्री तुलसी महाकाव्यम्:-. रघुनन्दन शर्मा आयुवदाचार्य को काव्य-कति है। इसम "आचार्य श्री तलसी के जीवन दर्शन का समग्रता से विश्लेषण हुआ है। तेरापंथ के संघाधिनायक के रूप में आचार्य श्री के यशस्पो जीवन के पचीस वर्षों को परिसम्पन्नता पर श्रद्धालओं ने अपना शक्तिभर अर्ध्य चढाया। पंडितजो आचार्य के श्रद्धालु भक्त थे अतः प्रस्तत कृति उसी अर्ध्य प्रस्तुतीकरण का एक अंग है। पंडितजी में कवित्व की अद्भुत क्षमता थी। कविता उनकी सहचरी क रूप म नहीं, अपिन अवरो के रूप में प्रकट हई-इस प्रतिपत्ति में विसंगति का लेश भी नहीं है। अत्यन्त ऋज और अकृत्रिम व्यक्तित्व के धनी पंडितजी में एक छलांग में ही महाकाव्य के गगन-स्पर्शी प्रासाद पर
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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