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________________ 58 हरिभद्रसूरि की रचनाओं के बाद सिद्धर्षि की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंच' कथा है। यह वि. सं. 906 (ई. सं. 962) में लिखी गई थी । शैली की दृष्टि से यह एक अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराट् स्वरूप को रूपायित किया गया है । डा. हीरालाल जैन ने लिखा है-'इसे पढते हुए अंग्रेजी की जान बनयन कृत 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस का स्मरण हो आता है, जिसमें रूपक की रोति से धर्मवृद्धि और उसमें आने वाली विघ्नबाधाओं की कथा कही गई है।। सिद्धर्षि ने उपद शमाला की टीका लिखी, कछ अन्य ग्रंप भी लिखे। पर मैं केवल उन्हीं ग्रन्थों का नामोल्लेख करना अपेक्षित समझता हूं, जिनका विधा और वर्ण्य विषय की दृष्टि से वैशिष्टय है । विषा और प्रेरक तत्व देश, काल, मान्यताएं, परिस्थितियां, लोकमानस, लोक-कल्याण, जनप्रतिबोध, शिक्षा और उद्देश्य ये लेखन के प्रेरक तत्व होते हैं । लेखन की विधाएं प्रेरक तत्वों के आधार पर बनती हैं । जैन लेखकों ने अनेक प्रेरणाओं से संस्कृत साहित्य लिखा और अनेक विधाओं में लिखा । धर्म प्रचार के उद्देश्य से धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ लिखे गए । अपने अभ्युपगम की स्थापना और प्रतिपक्ष-निरसन के लिये तर्क-प्रधान न्यायशास्त्रों की रचना हई । जनप्रतिबोध और शिक्षा के उद्देश्य से कथा-ग्रन्थों का प्रणयन हआ । लोक-कल्याण की दृष्टि से आयर्वेद, ज्योतिष के ग्रन्थ निर्मित हुए । देश, काल और लोकमानस को ध्यान में रखकर जैन लेखकों ने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा को भी महत्व दिया । प्राकृत युग (विक्रम की तीसरी शती तक) में जैन लेखकों ने केवल प्राकृत में लिखा । प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित युग (विक्रम की चौथी शती से आठवीं शती के पूर्वार्द्ध तक) में अधिकांश रचनाएं प्राकृत में हुई और कुछ-कुछ संस्कृत में भी । विक्रम की पांचवीं से सातवीं शती के मध्य लिखित आगम-चूर्णियों में मिश्रित भाषा का प्रयोग मिलता है--प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत के वाक्य भी प्रयक्त हैं। आठवीं शती के उत्तरार्ध में हरिभद्रसूरि ने प्रथम बार आगम की व्याख्या संस्कृत में लिखी। विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरवर्ती संस्कृत-प्राकृत-मिश्रित युग में आगमों की अधिकांश व्याख्याएं संस्कृत में ही लिखी गई। अन्य साहित्य भी अधिकमात्रा में संस्कृत में ही लिखा गया और अनेक विधाओं में लिखा गया। गजरात, मालवा (मध्यप्रदेश) और दक्षिण भारत में लिखा गया और राजस्थान में भी लिखा गया। आयुर्वेद आयुर्वेद का सम्बन्ध जीवन से है । जीवन का संबन्ध स्वास्थ्य से है। स्वास्थ्य का संबन्ध हित-मित आहार से है । हित-मित आहार करते हुए भी यदि रोग उत्पन्न हो जाय तो चिकित्सा की अपेक्षा होती है । जैन विद्वानों ने इस अपेक्षा की भी यथासम्भव पूर्ति की है । उन्होंने राजस्थानी में आयुर्वेद के विषय में प्रचुर साहित्य लिखा । कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे । हर्षकीतिमूरि (विक्रम की 17 वीं शती) का योगचिन्तामणि और यति हस्तिरुचि विक्रम की 18वीं शती) का वैद्य वल्लभ दोनों प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ये चिकित्सा-क्षेत्र में बहुत प्रचलित रहे हैं । इन पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। _1. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. 174
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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