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________________ - सुख-मीमांसा कर AR SHRJ लेखक : परमपूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास SER/ प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्य के शिष्य मुनि रत्नसेनविजय - OMGORRUCRI-NCREACROCHAKADHARASHTRA दुःखद्विद सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । समस्या बडी ही जटिल है ! इच्छा और यां यां करोति चेष्टां, तया तया दुःखमादत्ते ॥ | प्रयत्न का सुमेल होने पर भी सफलता क्यों नहीं ? प्रशमरति गाथा सं. ४० | बस ! इसी बात का समाधान हमें प्रशमरतिकार अर्थ :--मोह के अन्धत्व के कारण गुण और | उमास्वातिजी म. करते हैं, वे कहते हैं किदोष को नहीं जानने वाला, दुःख का द्वेषी और | संसारी जीव ज्यों ज्यों सुख के लिए प्रयत्न करता सुख का प्रेमी जीव ज्यों ज्यों प्रवृत्ति करता हैं, । है, त्यों त्यों दुःख को ही प्राप्त करता है, क्यों त्यों त्यों दुःखको ही प्राप्त करता हैं. कि वह मोह से अंध होने के कारण वस्तु के इस विशाल जगत में रहे हुए समस्त गुण-दोषों से अनभिज्ञ हैं। प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, मौह अर्थात् बुद्धि का विपर्यास-मिथ्यामति इस विषय में किसी भी दर्शनकार अथवा व्यक्ति अथवा अज्ञानता ! को भापत्ति नहीं हैं ! मात्र सुख की इच्छा हैं, बुद्धि के विपर्यास के कारण व्यक्ति, गुणीइतना ही नहीं, परन्तु जीव मात्र का प्रयत्न भी जन के गुण नहीं देख सकता हैं और अवगुणी सुख के लिए ही होता है । सुख का राग और के दोष को भी नहीं पहचान सकता है ! दुःख का द्वेष त्राणीमात्र में देखने को मिलता है। अर्थात् गुण में दोष का तथा दोष में गुण का सुख की तीव्र इच्छा और सुख के लिए आरोपण करता है, और इस विपर्यास के कारण अथाग प्रयत्न होने पर भी जगत में सुखो व्यक्ति उसकी प्रवृत्ति दुःखदायी ही बनती हैं। कितने देखने को मिलते है ? तियेचों को जाने जैसे उदाहरण के तौर पर अहमदाबाद निवासी श्री राम को बम्बई जाने की इच्छा है, दें, मनुष्य की ही बात करें ! मनुष्य में दिखने वह स्टेशन पर आकर बम्बई की टिकिट खरीद वाले अमीर-गरीब, राजा-नौकर, डॉक्टर-रोगी, कर, अपनी अज्ञानता के कारण दिल्ली की ओर वकील-बेरिस्टर तथा शिक्षक-विद्यार्थी आदि । जाने वाली गाड़ी में बैठ जाता है । गाडी अपनी किसी को भी पूछेगे तो वास्तविक जवाब यही तीव्र गति से आगे बढती है। परन्तु क्या श्रीराम मिलेगा कि 'मैं दुःखी हूँ !' सभी के पास सम- बम्बई पहँच जायेगा ? कदापि नहीं ! यह बात स्याएँ हैं, परन्तु समाधान किसी के पास नहीं! तो छोटा सा बालक भी समझ सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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