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________________ ७८ 1 (२) औपपातिक है ? औपपातिक नहीं है ? औपपातिक है और नहीं हैं ? औपपातिक न है, न नहीं है ? + + + (३) सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल है ? सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल नहीं है ? सुकृत - दुष्कृत कर्म का फल हैं, नहीं है ? सुकृत- दुष्कृत कर्म का फल न है, न नहीं है ? X (४) मरणानंतर तथागत है ! X तत्वज्ञान - स्मारिका X Jain Education International मरणानंतर तथागत नहीं है ? मरणानंतर तथागत है और नहीं है ? मरणानंतर तथागत न है और नहीं है ? * संजय के संशयवाद में और स्यादवाद में यह अन्तर है कि स्यादवाद निश्चयात्मक है किन्तु संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है । श्रमण भगवान महावीर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षा की दृष्टि से निश्चित रूप से देते थे । उन्होंने कभी भी तथागत बुद्ध की तरह किसी प्रश्न को अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास नहीं किया और न संजय की तरह अनिश्चित ही उत्तर दिया । स्मरण रखना चाहिए स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, न अज्ञानवाद है, न अस्थिर वाद है, न विक्षेपवाद है - यह तो निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है । भगवान महावीर ने अपनी विशाल व तत्त्व-स्पर्शिनी दृष्टि से वस्तु के विराट् रूप को निहारकर कहा-वस्तु में चार पक्ष ही नहीं होते किन्तु प्रत्येक वस्तु में अनन्त पक्ष हैं, अनन्त विकल्प है, अनन्त धर्म है। प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है । इसलिए भगवान महावीर ने उक्त चतुष्कोटि से विलक्षण, वस्तु में रहे हुए प्रत्येक धर्म के लिए सप्तभंगी का वैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया और अनन्त धर्मों के लिए अनन्त सप्तभंगी का प्रतिपादन करके वस्तुबोध का सर्वग्राही रूप जन जनके सामने उपस्थित किया । भगवान महावीर से पूर्व उपनिषद - काल में वस्तु-तत्व के सदसद्वाद को लेकर विचारणा चल रही थी, किन्तु पूर्ण रूप से निर्णय नहीं हो सका था । संजय ने उन ज्वलन्त प्रश्नों को अज्ञात कहकर टालने का प्रयास किया । बुद्ध ने कितनी ही बातों में विभाज्यवाद का कथन करके अन्य बातों को अव्याकृत कह दिया किन्तु महावीर ने स्पष्ट उद्घोषणा की कि चिन्तन के क्षेत्र में किसी भी वस्तु को केवल अव्याकृत या अज्ञात कह देने से समाधान नहीं हो सकता । इसलिए उन्होंने अपनी तात्विक व तर्कमूलक दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन किया । सप्तभंगीवाद, स्याद्वाद उसी का प्रतिफल है। 5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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