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________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन (११) दो या तीन देश आदिष्ट है सद्- (२०) अनेक देश आदिष्ट है सद्भावभाव-पर्यायों से और दो या तीन आदिष्ट है | पर्यायों से, एक देश आदिष्ट है असद्भावतदुभयपर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कन्ध (दो | पर्यायों से और एक देश आदिष्ट हैं तदुभयया तीन) आत्माएँ हैं और (दो या तीन) अव- पर्यायों से, अतः पंचप्रदेशी स्कंध (अनेक) क्तव्य है। आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । __(१२, १३, १४) ये तीन भंग भी चतु । (२१) दो देश आदिष्ट है सद्भाव-पर्यायों प्रदेशी स्कंध के समान है, से, एक देश आदिष्ट है असदभाव--पर्यायों से (१५) दो या तीन देश आदिष्ट है तदुभय- और दो देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों से; अतः पर्यायों से और दो या तीन देश आदिष्ट है | (दो) आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और (दो) असद्भाव-पर्यायों से, अतएव पंचप्रदेशी स्कंध अवक्तव्य है। (दो या तीन) अवक्तव्य है और (दो या तीन) (२२) दो देश आदिष्ट हैं सद्भाव पर्यायों आत्माएँ नहीं है। से, दो देश आदिष्ट है असद्भाव-पर्यायों से (१६) यह भंग भी चतुष्प्रदेशी स्कंध के और एक देश आदिष्ट है तदुभय-पर्यायों से, समान है। अतः पंचप्रदेशी स्कंध (दो) आत्माएँ नहीं है (१७) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट और अवक्तव्य है। है, एक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, | और अनेक देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है; इसी प्रकार षट्प्रदेशी स्कंध के २३ भंग अतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है, आत्मा नहीं है | किये गए हैं, बावीस भंग तो पहले के समान और (अनेक) अवक्तव्य है। ही है और २३ वाँ भंग निम्न प्रकार है(१८) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट | दो देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है, दो है, अनेक देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है | असद्भाव--पर्यायों से आदिष्ट है और दो देश और एक देश तदुभय--पर्यायों से आदिष्ट तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है,इसीलिए षट्प्रदेशी है; अतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है अनेक | स्कंध (दो) आत्माएँ हैं, (दो) आत्माएँ नहीं है आत्माएं नहीं है और अवक्तव्य है। और (दो) अवक्तव्य है। (१९) एक देश सद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट उपर्युक्त भंगो का अवलोकन करने पर हम है, दो देश असद्भाव-पर्यायों से आदिष्ट है | इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि स्याद्वाद से और दो देश तदुभय-पर्यायों से आदिष्ट है, फलित होनेवाली सप्तभंगी बाद के आचार्यों की भतः पंचप्रदेशी स्कंध आत्मा है (दो) आत्माएँ देन नहीं है । पं. दलसुख मालवणिया ने नहीं है और (दो) अवक्तव्य है। लिखा है__९ आगमयुग का जैनदर्शन: पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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