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________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा डा. सागरमल जैन निर्देशक पार्श्वनाथ विद्या - शोध संस्थान - वाराणसी ५ जैन दर्शन में ' द्रव्य ' के वर्गीकरण का एक आधार अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा भी है । षट् द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पांच अस्तिकाय माने गये हैं, जब कि काल को अनस्तिकाय माना गया है । अधिकांश जैन दार्शनिकों के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किन्तु उसमें कायन्व नहीं हैं, अतः उसे अस्तिकाय के वर्ग में नहीं रखा जा सकता है यद्यपि कुछ वे आचार्यो ने काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी आपत्ति उठाई है, किन्तु यह एक भिन्न विषय है, जिसकी यहां अपेक्षित नहीं है । सर्व प्रथम तो हमारे सामने मूल प्रश्न यह है कि अस्तिकाय की इस अवधारणा का तात्पर्य क्या है ? व्युत्पत्ति की दृष्टि से " अस्तिकाय " शब्दों के मेल से बना है । 66 39 अस्ति + काय- -" अस्ति " का अर्थ सत्ता या अस्तित्व और काय का अर्थ है, शर अर्थात् जो शरीररूप से अस्तित्ववान है, वह अस्तिकाय है । Jain Education International दो এএ* किन्तु यहाँ " काय या शरीर शब्द भौतिक शरीर के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, जैसा कि जनसाधारण समझता है । क्योंकि पंच अस्तिकायों में पुद्गल को छोड़कर शेष चार अमूर्त है । अतः यह मानना होगा कि यहाँ काय शब्द का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में ही हुआ है । "" पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द ICT अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया हैं: " कायत्वमाख्यं सावयवत्वम्" अर्थात् काय का तात्पर्य सावयवत्व है। जो अवयवी द्रव्य है, वे अस्तिकाय और जो निरवयवो द्रव्य है वे अनस्तिकाय है । अवयवी का अर्थ है अंगों से युक्त । दूसरे शब्दों में जिस में विभिन्न अंग अंश या हिस्से (Parts ) हैं वह अस्तिकाय है । यद्यपि यहां यह शंका उठाई जा सकती है कि अखण्ड- द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना कहां तक युक्तिसंगत होगी ? जैन दर्शन में पंच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन एक अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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