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________________ ४० ] तत्त्वज्ञान स्मारिका के प्रमुख प्रतिपाद्य विषय के रूप में देखा जा | ___जहाँ एक ओर पूर्ण तत्व के रूप में, सकता है। | * तस्मादेतस्माद्वा आत्मन आकाशः जायते, ये सत्ताएँ हैं-(१) ब्रह्मन् और (२) आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः आत्मन् । दो पर्यायवाची, शब्दों से व्यक्त इन सत्ताओं | अग्नेरावः, अद्भ्यः पृथिवी पृथ्या ओषधम् का, एकत्व और पूर्णत्व ओषधिभ्ये इमानि सर्वाणि भूतानि जायन्ते ।" " पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । -से विकासवाद का दार्शनिक सिद्धान्त __ पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते ॥” | वर्णित है वहीं " शिवं शान्तं शाश्वतमद्वैतं चतर्थं इस मंत्र में स्पष्ट तथा प्रतिपादित हो जाता है। तं मन्यन्ते स आत्मा विज्ञेयः ।" - यदि और सूक्ष्म वीक्षण करें, तो पूर्ण चेतना | | ऐसा कहकर परम साध्यभूत तत्त्व के रूप के आत्मा-विस्तार की अभिव्यक्ति हमें में आत्मा को स्वीकार किया गया । " ऋचोऽक्षरे चरमे व्योमन् , । उक्त दोनों धारणाओं के बीच, मध्यमा यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः । | प्रतिपदा न्यायानुसार हर वर्ण के विचारकने यस्तन्न वेद किं ऋचः, आत्मा को अपने पक्ष में लेने का प्रयास किया। करिष्यसि य इह तद्विदुः त इमे समासते ॥" | । यहाँ तक कि जडवादी विचारकों के मत के इस मन्त्र में सम्यक्तया दृष्टिगोचर होती है। प्रमाणभूत मंत्र भी वेदों में उपलब्ध हैं। ___ सृष्टि-सिद्धान्त के निरूपणार्थ भारतीय ___अति प्राकृतों के मत का “आत्मा वै पुत्र दर्शन में संभवतः सर्वोतम विषय आत्मा या नामासि" पोषक कौशीतकी उपनिषद् का ११ आत्मन् ही समझा गया है। वाँ मंत्र अपने पुत्र में आत्मीय प्रेम का प्रदर्शन यह शब्द अंग्रेजी भाषा के Self (सेल्फ) का समानार्थक है । कहीं कहीं Being के रूप कर पुत्र के पुष्ट या नष्ट होने पर (अहमेव पुष्ये नष्टो वा) ऐसा भाव प्रकट करता है । में भी इसे दार्शनिको ने आत्म-विवेचन के सन्दर्भ में ग्रहण किया हैं। चार्वाकों के विचारधारा का समर्थन करने - बाइबल के न्यू टेस्टामेन्ट (New Testa- | वाले " स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । तैत्ति. उप. ment) के गंभीर चिन्तन से भी कहीं गंभीरतर | द्वितीय वल्ली प्रथम अनु. के मन्त्र से, घर में और गंभीरतम चिन्तन के प्रसंग में वेदों के अन्तिम | आग लग जाने जैसा घटनाओं में पुत्र को भी भागभूत उपनिषदों में इस आत्मा, आत्मन् या छोड़कर अपने को बचाने की प्रवृत्ति से एकाकी आत्म शब्द का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में भाग निकलने आदि में स्थूल शरीरात्मवाद की किया गया है। पुष्टि होती है। * तैत्तिरीय उपनिषद् वल्ली-२ अनुवाद-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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