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________________ ४६ श्री विजयानंदसूरिकृत [ १ जीव (३३) (द्रव्यादि अपेक्षासे ज्ञानका विषय भग० श०८, ३०२, सू० ३२२ ) जाणे देखे क्षेत्री कालथी भावधी सर्व क्षेत्र सर्व काळ मति सर्व भाव सर्व क्षेत्र सर्व काळ सर्व भाव श्रुत जघन्य - अंगुलका जघन्य - आवलिकानो जघन्य - अनंता भाव; असंख्यातमा भाग; असंख्यातमो भाग; | उत्कृष्ट सर्व भावके उत्कृष्ट - लोक सरीषा उत्कृष्ट - असंख्य उत्स- अनंतमे भाग जाणे असंख्य अलोकखंड | पिंणी अवसर्पिणी देखे अवधि केवळ "मति अज्ञान श्रुत अशान विभंग द्रव्यथी आंदेशे सर्वद्रव्य उपयोगे सर्व अनंतानंत प्रदेशी मनः पर्यव स्कंध, एवं उत्कृष्ट पिण जघन्य - अनंत रूपी द्रव्य अने उत्कृष्टसर्व रूपी द्रव्य Jain Education International सर्व द्रव्यम् परिग्रह द्रव्य 0 29 39 ज्ञानी मति श्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानी समयक्षेत्र ऊंचा नीचा, अधोलोकना नवसे, ९ योजन (क्षु) लक सर्व क्षेत्र परिग्रह "3 39 अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त 39 जघन्य-पल्योपमनो असंख्यातमो भाग; एवं उत्कृष्ट पि "3 सर्व काळ परिग्रह स्थितिज्ञान - ज्ञानी दुप्रकारे - ( १ ) सादि - अपर्यवसित, (२) सादि - सपर्यवसित. सादिसपर्य० जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट -६६ सागर झाझेरा. मति श्रुत जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट६६ सागर झाझेरा. अवधि जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट ६६ सागर झाझेरा. मनः पर्यव जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट - देश ऊन पूर्व कोड. केवल सादि अपर्यवसित. अज्ञानी त्रिधा - ( १ ) अनादि अपर्यवसित, (२) अनादि सपर्यवसित, (३) सादि सपर्यव सित, जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट - अर्धपुद्गल देश ऊन. मति, श्रुत एवं उपरवत् त्रिधा ज्ञातव्यानि विभंगज्ञानी जघन्य -१ समय, उत्कष्ट - ३३ सागर देश ऊन पूर्व कोड अधिकम्. (३४) ( अंतरद्वार जीवाभिगम प्रति०९, ३०२, सू० २६७ ) मनः पर्यवज्ञानी १ ओघथी, सामान्यथी । २ ए प्रमाणे उपरनी पेठे ऋण प्रकारे जाणवां । For Private & Personal Use Only 99 " 59 अनंता भाव; सर्व भावने अनंतमे भाग सर्व भाव परिग्रह 99 59 अंतर उत्कृष्ट देश ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त 37 35 33 www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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