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________________ तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह इति सर्वत्रतानां भङ्गोत्पत्तिकारिका मंतव्या इति श्रावकवतानां भङ्गाः समर्थिताः । इति आत्मारामसङ्कलितायां संवरतत्त्वं संपूर्णम् । अथ 'निजेरा' तत्त्व लिख्यते-अथ 'निर्जरा' शब्दार्थ-'निर्' अतिशय करके 'जु' कहता हानि करे कर्मपुद्गलनी ते 'निर्जरा' कहीये. अथ निर्जराके बारा भेद लिख्यतेअनशन १, ऊनोदरी २, भिक्षाचरी ३, रसपरित्याग ४, कायक्लेश ५, प्रतिसंलीनता ६; प्रायश्चित्त १, विनय २, वैयावृत्त्य ३, स्वाध्याय ४, ध्यान ५, व्युत्सर्ग ६; एवं १२. पहेले ६ भेद बाह्य निजेराके जानने; आगले ६ भेद अभ्यंतर निजेराके जानने, तपवत्. इस तरे निर्जराके भेदोंका विस्तार उववाइ शास्त्रसे जानने. इहां तो किंचित् मात्र ध्यान च्यारका खरूप लिख्यते श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित ध्यानशतकथी। अथ ध्यानखरूप दोहराशुक्ल ध्यान पावक करी, करमेंधन दीये जार; वीर धीर प्रणमु सदा, भवजल तारनहार १ अथ आत्तध्यानके चार भेद कथन. सवईया इकतीसाद्वेषहीके बस पर अमनोग विसे घर तिनका विजोग चिंते फेर मत मिलीयो शूल कुण्ठ तप रोग चाहे इनका विजोग आगेकू न होय मन औषधिमें भिलियो राग बस इष्ट विसे साता सुष माहि लिये नारी आदि इष्टके संजोग भोग किलियो इंद चंद धरनिंद नरनको इंद थऊं इत्यादि निदान कर आरतमे झिलियो १ अथ स्वामी अने लेश्या कथन. सवईया ३१ साराग द्वेष मोह भयो आरतमे जीव पर्यो बीज भयो जगतरु मन भयो आंध रे किसन कपोत नील लेसा भइ मध मही उतकृष्ट जगनमे एकही न सांध रे आरतके वस पर्यो नर जन्म हार कर्यों चलत दिषाइ हाथ चढ चहूं कांध रे आतम सयाना तोकू एही दुषदाना जाना दाना मरदाना है तो अब पाल बांध रे २ अथ आर्तके लिंगरोद करे सोग करे गाढ स्वर नाद करे हिरदेवू कूट मरे इष्ट के विजोग ते चित्त मांजि षेद करे हाय हाय साद करे वदन ते लाल गिरे कष्टके संजोग ते निंदे कृत आप पर रिद्धि देष चित ताप चाहे राग फाहे मेरे ऐसा क्यु न जोग ते विसेका पिया सामन आसा पासा भासा वन आलसी विसेमे गृद्ध मूढ मति जोग ते ३ इति आर्तध्यान संपूर्णम्. अथ रौद्र ध्यानके चार भेदनिघृण चित्त करी जीव वध नीत धरी वेध बंध दाह अंक मारण प्रणाम रे माया झूठ पिशुनता कठन वचन भने एक बृ (ब)म जग मने नाना नही काम रे पंचभूतरूप काया देवकू कुदेव गाया आतम सरूप भूप नही इन ठाम रे छाना पाप करे लरे दुष्ट परिणाम धरे ठगवासी रीत करे दूजा भेद आम रे ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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