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________________ विभज्यवाद : अनेकान्तवाद SUUUUUURITUUUUUUUUttato भगवती शतक १२, उद्देशक २ में जयन्ती श्रमणोपासिका का वर्णन है। उसके भवनों में सन्त भगवन्त ठहरा करते थे। इसलिए वह शय्यातर के रूप में विश्रुत थी। जैनदर्शन का उसे गम्भीर परिज्ञान था। उसने भगवान महावीर से जीवन सम्बन्धी गम्भीर प्रश्न किये। भगवान् महावीर ने उन प्रश्नों के उत्तर स्यादवाद की भाषा में प्रदान किये। सूत्रकतांग में यह पूछा गया कि भिक्षु किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे? इस प्रसंग में कहा गया है कि विभज्यवाद का प्रयोग करे।२४७ विभज्यवाद क्या है, इसका समाधान जैन टीकाकारों ने किया है-स्याद्वाद या अनेकान्तवाद। नयवाद, अपेक्षावाद, पृथक्करण करके या विभाजन करके किसी तत्त्व का विवेचन करना। __ मज्झिमनिकाय में शुभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में तथागत बुद्ध ने कहा- हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं ।२४८ माणवक ने तथागत से पूछा था कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता, इस पर आपकी क्या सम्मति है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ या ना में न देकर बुद्ध ने कहा-गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्ग का आराधक नहीं हो सकता। यदि त्यागी भी मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं है। वे दोनों यदि सम्यक प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं। इस प्रकार के उत्तर देने के कारण ही तथागत अपने-आप को विभज्यवादी कहते थे। क्योंकि यदि वे ऐसा कहते कि गृहस्थ आराधक नहीं होता, केवल त्यागी ही आराधक होता है तो उनका वह उत्तर एकांशवाद होता, पर उन्होंने त्यागी या गृहस्थ की आराधना और अनाराधना का उत्तर विभाग करके दिया इसलिए तथागत बुद्ध ने अपने-आप को विभज्यवादी कहा है। ___ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि बुद्ध ने सभी प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद के आधार से नहीं दिये हैं। कुछ ही प्रश्नों के उत्तर उन्होंने विभज्यवाद को आधार बनाकर दिये हैं। तथागत बुद्ध का विभज्यवाद बहुत ही सीमित क्षेत्र में रहा; पर महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा। आगे चलकर बुद्ध का विभज्यवाद एकान्तवाद में परिणत हो गया तो महावीर का विभज्यवाद व्यापक होता चला गया और वह अनेकान्तवाद के रूप में विकसित हुआ।२४९ तथागत के विभज्यवाद की तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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