SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० भगवती सूत्र : एक परिशीलन अतिव्याप्ति दोष-लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण का रहना। अतिप्रसंगदोष-अस्ति-नास्ति दोनों में से किसी एक को ही मानने से कार्य हो सकता है, तो फिर दोनों को मानने की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार मानना अतिप्रसंगदोष है। और वह केवल वचन का विलास है। अचक्षुदर्शन-अचक्षुभिः चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रिय मनोभिदर्शनमचक्षुर्दर्शनम्" (प्रज्ञापनाः मलय. वृ. २३/२९३) अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले सामान्य प्रतिभास या अवलोकन को अचक्षुदर्शन कहते हैं। अतीन्द्रिय सुख-इन्द्रिय व मन की अपेक्षा से रहित आत्ममात्र की अपेक्षा से होने वाला निराकुल, निराबाध सुख। अतीर्थङ्करसिद्ध-सामान्य केवली होकर सिद्ध होने वाले जीव। अतीर्थसिद्ध-तीर्थ से अभिप्राय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका से है। तीर्थ के अभाव में तीर्थान्तर में सिद्ध होने वाली आत्माएं। जैसे-मरुदेवी माता। अत्यन्ताभाव-जिसका त्रिकाल में भी सद्भाव सम्भव न हो उसका अभाव। जैसे-खरगोश के सिर पर सींगों का अभाव। अदत्तादान-स्वामी की आज्ञा के बिना परकीय वस्तु का ग्रहण। अधर्मास्तिकाय-जो स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गल द्रव्यों की स्थिति में निमित्तभूत हो। अनक्षरश्रुत-उच्छ्वसित, निःश्वसित, हुंकारादि ध्वनि अनक्षरश्रुत है। अननुगामी अवधि-जो अवधिज्ञान क्षेत्रान्तर या भवान्तर में अपने स्वामी के साथ नहीं जाता। अनन्तानुबंधी-अनन्त भवों की परम्परा चालू रखने वाली कषायों को अनन्तानुबंधी कहते हैं। अनपवर्तनीय-जितनी स्थिति बांधी गई है उतनी ही स्थिति का वेदन करना व अपने काल की अवधि से पूर्व उसका विघात-नाश न होना। अनवस्था-अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते हुए विश्रान्ति का अभाव अनवस्था है। अनुगम-वस्तु के अनुरूप ज्ञान को अनुगम कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है, वह अनुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy