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________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह धन्य-धन्य वनवासी सन्त, सहज दिखावें भव का अन्त । अनियतवासी सहज विहार, चन्द्र चाँदनी सम अविकार ॥ रखें नहीं जग से सम्बन्ध, करें नहीं कोई अनुबन्ध || आतम रूप लखें निर्बन्ध, नशें सहज कर्मों के बन्ध । मुनिवर सम मुनिवर ही जान, वचनातीत स्वरूप महान । ज्ञान माँहिं मुनिरूप निहार, करें वन्दना मंगलकार ॥ पाऊँ उनका ही सत्संग, ध्याऊँ अपना रूप असंग । यही भावना उर में धार, निश्चय ही होवें भवपार ॥ ॐ ह्रीं श्रीत्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालाऽर्घ्यं नि. स्वाहा । अहो! सदा हृदय बसें, परम गुरू निर्ग्रथ । जिनके चरण प्रसाद से, भव्य लहें शिवपंथ ॥ ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ शान्ति पाठ हूँ शान्तिमय ध्रुव ज्ञानमय, ऐसी प्रतीति जब जगे । अनुभूति हो आनन्दमय, सारी विकलता तब भगे ॥ १ ॥ निजभाव ही है एक आश्रय, शान्ति दाता सुखमयी । भूल स्व दर-दर भटकते, शान्ति कब किसने लही ॥२॥ निज घर बिना विश्राम नाहीं, आज यह निश्चय हुआ । मोह की चट्टान टूटी, शान्ति निर्झर बह रहा ॥ ३ ॥ यह शान्तिधारा हो अखण्डित, चिरकाल तक बहती रहे । होवें निमग्न सुभव्यजन, सुखशान्ति सब पाते रहें ॥ ४ ॥ पूजोपरान्त प्रभो यही, इक भावना है हो रही । लीन निज में ही रहूँ, प्रभु और कुछ वाँछा नहीं ॥५॥ 87 सहज परम आनन्दमय निज ज्ञायक अविकार । स्व में लीन परिणति विषै, बहती समरस धार ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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